Book Title: Mularadhna
Author(s): Shivkoti Acharya, 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 1840
________________ मूलाराधना १८२९ पंच सरीररस येणं चैव ॥ ठाणं तह य छ च ॥ तिणि य अंगोवंग संघवणं तद्द य होइ छ । या दो अगुरुलहुयचउक्कं विहायगदिदुग थिरथिरं चैव ॥ सुहसुरसरजुयला विथ पत्तेयं भगं अजसे ॥ अगदेवं णिमिगं न अपनतं तह य जीवगोयं च ॥ अष्णदर देयणीयं अजोगदुरिमम्मि बोाि ॥ अण्यस्येयणीयं मया मनुवदुगं च बोहल्या ॥ पंचेंदियजाई विय तससुभगादेज पज्जतं !! यादरजस कित्तीविय तित्यथर उच्चगोययं चैव ॥ एए तेरस पयडी अजोइडिय संभवोच्छिष्णा देवदुय पण सरीरं देव व संघार्थ अर्थ -- वे अयोगि जिन पंच स्वस्वर उच्चारण मात्र कालमें उदयमें नहीं आई हुई सब प्रकृतिओंका इस गुणस्थान के उपान्त्य समयमें क्षय करते हैं. अर्थाद तिहत्तर प्रकृतिका क्षय करते हैं. चरिमसमयम्मि तो सो खवेदि वेदिज्जमाणपयडीओ ॥ बारस तित्थयर जिणों एक्कारस सेससव्वण् ॥ २१२५ || शरीरं पंचधा तत्र पञ्चधा देहबन्धनम् || संघातः पञ्चधा पोडा संस्थानममरद्वयम् || २१९९ ॥ अंगोपांग त्रिसंख्यानं षोढा संहननक्षणे ॥ पंच वर्णा रसाःपंच गंधस्पर्शा द्विषाष्टधा ।। २२०० ॥ क्षीयते गुरुलध्वादिचतुष्कं वे नभोगती ॥ शुभ स्थिरद्वन्द्वं प्रत्येकं सुस्वरवयम् ॥ २२०१ ।। आवास -१८२९

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