Book Title: Mularadhna
Author(s): Shivkoti Acharya, 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 1849
________________ मूलाराधना १८३८ मुक्तस्य पुनः शरीरमणाभावे युक्तिमाह-- मूलारा---पंधहेदू बंधस्य हेतुमिथ्यावादिः। स च मुक्तस्य भास्तीति पुनः कर्मबंधाभावात् । तद्धेतुफदेहाहणाभावः । अथवा बंधश्रासौ हेतुश्च पुनः शरीरप्रणे निमित्तमिति प्रायम् ॥ अर्थ- उन सिद्ध परमेष्ठिक कर्मबंधनके कारण रूप मिथ्यात्वादिकोंका अभाव हो चुका है इस लिए पुनः उनको नवीन कर्मपन्ध नहीं होता है. कर्म के बन्धनेसे देहका ग्रहण होता था. अब कर्मबन्ध ही नही तो नवीन देहकी प्राप्ति कहांसे हो सकेगी. जो जीव कर्मस मलिन हुआ है. उसके ही नवीन देह की उत्पचि होती है. अन्य को नहीं होती है. कम्जाभावण पुणो अच्चं पत्थि फंदणं तस्स ॥ पओगदो वि फंदणमदेहिणो आत्थ सिद्धस्स ॥ २१३८ ॥ विजयोदया-कज्जाभाषण पुणो कार्थाभावेन तत्पंदनं नास्ति तस्य परप्रयोगगतमपि स्पंदनमस्यादेहस्य सिदस्य ॥ सिद्धस्य कृतकृत्यतथा प्रयोजनाभावाददेहतया च वातादिप्रयोगागम्यत्वात्कदाचिदपि ततश्चलनं नास्ती:यव. गमयति ___मूलारा-फजाभावेण प्रयोजना भावेन । अञ्चतं सर्वकान्ह । फंदणं चलनं । पओगदो वि वातादेरपि । अदेहिमो देहसंयोगमुक्तस्य अमूर्तस्येत्यर्थः । अर्थ---कुछ भी प्रयोजन नहीं होनसे सिद्ध परमप्टिके मंदशाम परिस्पंदन-चंचलपना नहीं होता है तथा वातादिकके संयोग से भी उन में चंचलपना नहीं है, क्योंकि उन के देहका ही अभाव हुआ है. कालमणतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढो ॥ सो उवकारो इहो अठिदि सभावेण जीवाणं ।। २१३९ ॥ अधर्मवशतः सिद्धास्तत्र तिष्ठन्ति निश्चलाः ।। सर्वदाप्युपकर्तासौ जीवपुगलयोः स्थितेः ॥ २२२० । १८१८

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