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धूलाराधना १८५५
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अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करनेमें जो ऊगे हुए सूर्यके समान है- जिन्होंने केवलज्ञानरूपी साम्राज्यपद धारण किया हैं जो भक्योंके अद्वितीय मित्र हैं ऐसे जिन भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ.
श्री अपराजित सूरि, चंद्रनंदि और महामकृत्याचार्य नामक मुनिराजोंके प्रशिष्य थे, आरातीय विद्वानों चूडामणिके समान श्रेष्ठ थे. इन्होने नागनंदि आचार्य के चरणकमलोकी सेवा करके ज्ञान मास किया था. ये बलदेव के शिष्य थे. जिनशासनका उद्धार करनेमें ये धीर समर्थ थे. इनको खूब यश प्राप्त हुआ था. इन्होने नागनंदि आचार्यकी प्रेरणा से विजयोदया नाम की यह आराधना टीका रचकर समाप्त की है.
ये चितयंति तदत्तद्भवसिद्धिप्य दाराधनानुगत मृत्यु विकल्पकल्पं ॥ ऐदयुगीनमुनयोऽर्हदुपज्ञमेनं सत्यद्वमुताभ्युदय मुक्तिमुदीशिनस्ते ॥ १ ॥ इमामष्टश्रासीतं त्रित्रिचतुरे। निमन्धैष्टीकाथैः स्थविरवचनैरप्यवितथैः ॥
कृतां संच=च्चैः शिवश्चनमीत रद्द ये प्रत्याशाधरपुरुषदूरं पदमि ॥ इत्याशाधरानुस्मृतमंथसंदर्भ मूलाराधनादर्पणे पदप्रमेयार्थ प्रकाशीकरवणेऽष्टम आश्वासः ॥ स्वस्ति स्यात्कारकेतनाय श्रीमदनेकान्तशासनाय ॥
अथ प्रारब्धनिर्विघ्नपरिसमाप्तिप्रमोद भरानुविद्धभक्तिपर वशमानसो प्रथकृत्परमाराध्यां भगवतीमाराधनाममिष्टोतुमिदं वृत्तदशकमपाठीत् ॥
लब्बा लचश्विरेण रचिताः कालादिलीः सतां भिव्वाराधकतां विशुद्धिमती भव्या भवाद्विभ्यतः ॥ यामाराध्य शिवाध्ववृत्तिमसिधसिध्यन्ति सेरस्यति वा । तां वंदे व्यवहार निश्चयमयी माराधना देवताम् ॥ १ ॥ सर्वज्ञाभिधहिम्यभूधर हृदोद्भूतेन बाक्स्रोतसा । तवज्ञप्ति मितिसंगसुभगेनासंगकुंडाश्रिता ॥ भस्मान्वः पुनतात्रिमार्गविलसद्वेदाय रूदौजसा । चित्धुिं पृक्ती धुनोतु मदधाम्याराधनास्वर्धुनी || २ || या सम्यक्स्वमुखेन दोधव पुपोधोता दिदोविंशति- भीसारेण तपश्चरित्रचरणेनोत्सिक्तपिच्छसिना ॥ रूपेणाभिगवानि भाक्तिकजनैः संयोजयंत्यं जसा || तामानंदसुधाधिदेवतभुवैम्याराधनां प्रश्रयान् ॥ ३ ॥ दीप्रास्तिक्यकिरीटिकामुपशगस्फारोरुद्दाएं स्फुरनिर्वित्संसृतिभीतिकुंडलरुचि स्फूर्जत्कृपामुद्रिकाम् ॥
आश्वासः
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