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मूलाराधना
आश्वासा
मूलारा--अवरदक्खिगाए नहत्यदिशि । अपराण पाश्चिमविशि । घसधीदो पकवसतेः सकाशान् । वणिज्जदि प्रतिपाधत्ते पूर्वाचार्यः ॥
अर्थ-वह निषिधिका चीटिओंसे रहित, छिद्रोंसे रहित होनी चाहिये. घिसी हुई न होना चाहिये. प्रकाशसहित होतं. समान भूमिके स्थानपर होवे, निजन्तुक. चाधारहित होवे. बह गीली नथा इधर उधर हिलन वाली नहीं होवे. यह निपीधिका क्षपककी वसविकासे नैऋत्य दिशामें, दक्षिण दिशा में अथवा पश्चिम दिशा में होनी चाहिये. ऐसी इन दिशाओंमें निषिधिका की रचना करना पूर्व आचार्यों ने प्रशस्त माना है.
सम्बसमाधी पढ़माए दक्षिणाए दु भत्तगं सुलभं ॥ अबराए सुहबिहारो होदि य उवधिस्स लाभो य ॥ १९७१ ॥ सर्वस्यापि समाधानं प्रथमायां तथान्यतः ।
आहारसुलभोऽन्यस्यां भवेत्सुखविहारिता ।। २०४८ ।। विजयोथा-सब्बसमाथी पढमाप सर्वेषां समाधिपति परमाए अपरदक्षिणदिगवस्थितायां निपीधि काथां, दक्षिणबिगवस्थितायामाहार: सुलभः पधिमायां सुखविहारः उपकरणलाभध ।।
पूर्वोक्कदिनयनिषद्याकरगे शुभफलविशेषान्प्रकाशयत्ति
मूलारा-सव्वसमाधी सर्वेषां संघांतर्षति श्रमणादीनां समाधान । भत्ता अन्नपानं । सुहाविहारो सुखमयर्तना । परधिस्स पुस्तफायुपकरणस्य ॥
अर्थ--नैऋत्यदिशाकी निषिधिका सर्व संघके समाधिके लिये कारण हो जाती है. अर्थात इस दिशाकी निषिधिका संघका हित करनेवाली होती है. दक्षिण दिवाकी निषिधिकासे आहार सुलभतासे संघको मिलता है. पश्चिमदिशामें निषिधिका होनेसे संघका सुखसे बिहार होता रहेगा और उनको पुस्तकादिक उपकरणोंका लाभ होता रहेगा.
जदि तेसि वाघादो दठ्ठव्वा पुन्वदक्खिणा होइ ॥ अवरुत्तरा य पुष्वा उदीचिपुन्चुत्तरा कमसो ॥ ११७२॥
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