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मूलाराधना
आश्वास
विजयोदया--गिरिणदियादिपवेता गिरिनधादिप्रवेशा यदि तपोधनैरुषितानि तीर्थानि तीर्थ स्वयं कथं न भवेत् क्षयकस्तपोगुणराशिः ॥
क्षपकस्य तीर्थतो मुख्यरुयोपपादयतिमलारा--सिदा आश्रिताः । ण होमओ न भवेत् । सय परनिरपेक्षतया ।। क्षपक क्यों तीर्थ माना जाता है, इस प्रश्नका उत्तर
अर्थ--पर्वत, नदी वगैरह प्रदेश जहाँ तपोधन मुनिओने निवास किया था वे भी यदि तीर्थ है. तो तपस्वी और गुणोंका राशि स्वरूप क्षपक क्यों न तीर्थ माना जायगा. अर्थात् क्षएकको तो अवश्य तीर्थ समझना चाहिये.
पुन्वरिसीणं पडिमाओ बंदमाणस्स होइ जदि पुण्णं ॥ खवयस्स बंदओ किह पुण्णं विउल ण पाविज्ज ॥ २००८ ॥ धंदमानोऽश्नुते पुण्यं योगिनां प्रतिमा यदि ॥
भक्तितो न तपोराशिस्तदानी क्षपकः कथम् ॥ २०८१ ।। विजयोदया-पुचरिसी पद्धिमाउ पूर्वेषां ऋषीणा प्रतिमा घंवमानस्य यदि पुण्यं भरति भपके घेदनोधता कथं विपुलं पुण्यं न प्राप्नुयात् ॥
क्षपकवंदारोचिपुलपुण्यलाभमुपपापयतिमूलारा स्पष्टम् ॥
अर्थ-प्राचीनमुनिओं के प्रतिमाओंकी वंदना करने वालोंको यदि पुण्य प्राप्त होता है तो आपककी बंदना करने पाले भन्यो को क्यों न पुण्यलाम होगा? अर्थात् क्षपकवदनसे अवश्य पूण्यप्राप्ति होती है.
जो ओलग्गदि आराधयं सदा तिव्यभसिसजुचो । संपज्जदि णिविग्धा तस्स वि आराहणा सयला ॥२००९॥
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