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मूलाराधना
आश्वासा
अर्थ-भक्तप्रत्याख्यान मरणमें जो प्रयोगविधि विस्तारसे हमने कहा है. वहीं इस बालयडितमरणमें गृहस्थ के योग्य समझना चाहिये. श्रावकके रत्नत्रय को योग्य ऐसा जो जो विनय, समाधि वगैरह विधि है वह यहां भी समझना चाहिये. बालपंडित मरणसे मरण करनेवाला आवक नियमसे सौधर्मादिकल्पोंमें उत्पन्न होता है. तदनंतर उत्कृष्टतासे सात भवों में वह नियमसे सिद्ध होता है. इस प्रकार अरइतके आगममें बालपंडित मरणका स्वरूप कहा है. अब यहाँसे आगे पंडितपंडितमरणका स्वरूप हम (आचार्य) कहते है.
साह जधुत्तचारी बट्टतो अप्पमत्तकालम्मि ॥ झाणं उवेदि धम्म रविट्टकामो खवगसेटिं ।। २०८८ ।। अप्रमत्तगुणस्थाने वर्तमानस्तपोधनः ।।
आरोक्षपकणी धर्मध्यानं प्रपद्यते ॥ २१६१ ॥ विजयोवया-- साह अधुत्तचारी शास्त्रोक्तन मार्गेण प्रतिमानस्साधुरप्रमत्तगुणस्थानकाले धर्य ध्यान मुपैति क्षपकथणि प्रवेष्टुकामः ५
अथवं नाबालमरणादिचतुष्टयं प्रणिगरा पंडितपंडितमरणं गाथावासलया निरूपयजीवन्मुक्तिप्रादुर्भावप्रकमोपक्रम पंचदशगाथाभिरभिधत्ते---
मूलारा-पयि मिदुकामो प्रवेटुमिच्छन् ।
अर्थ-शास्त्रोक्त मार्गका अनुसरण करनेवाले मुनिराज अप्रमत्तगुण स्थानमें क्षपकश्रेणीकी प्राप्ति कर लेनके लिये धर्मध्यानको धारण करते हैं. ध्यानपरिकर बाह्य प्रतिपादयति
सुचिए समे विचित्ते देसे णिज्जंतुए अणुग्णाए॥ उज्जुअआयददेहो अचलं बंधेत्तु पलिअंकं ॥ २०८९ ।।
अनुज्ञाते समे देशे विविक्त जंतुवर्जिते ॥ कावायतवपुर्यष्टिः कृत्वा पर्यकर्वधनम् ॥ २१६२ ॥
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