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लाराधना
आभासः
१८.१
यथोक्तापकस्याकृतसल्लेखनस्य मरणं बालपंदितमरणसंज्ञया व्यपदेष्टुं नाथायमाहमूलारा-आसुकारे सइसोपस्थिते । अब्बोच्छिण्णाप अनिछन्नायां ॥
गृहस्थके यारा ब्रताका वर्णन.
अर्ध-प्राणोंका घात करना, असत्य बोलना, चोरी करनापरस्त्री सेवन करना. परिग्रहमें अमर्याद इच्छा रखना, इन पापोंसे विरक्त होना अणुव्रत है. सर्व हिमादि पातकोंका त्याग करने के लिये दिशा तथा विदिशामें गमन का परिमाण करना दिग्बत है. पापोदेश, हिंसादान, अपध्यान, कुशास्त्र श्रवण और प्रमादयुक्त आचरण इन पांच अकार्योसे विरक्त होना अनर्थदंडवत कहा जाता है. घर, खेत बगैरह की मर्यादा कर हिंसादिनिवृत्ति करना अर्थात क्षेत्रादि मर्यादाके बाहर जानका त्याग करना, मादामें ही रहना देशाबकाशित व्रत है.भोग और उपभोगोंका परिमाण करना भोगोपभोग परिमाणवत है, त्रिकालमें देववंदनादिक करना सामायिक है. चागें पर्वतिथिओंमें उपवास करना, एकदफे भोजन करना इत्यादि तप करना प्रोषधोपचास प्रत है. पात्रको दान देना आतीयसंविभागवत है, ये चार शिक्षाबत हैं. इन व्रताको पालनेवाले गृहस्थ सहसा मरण आनेपर, जीवितको आशा रहनेपर, अथवा बंधुओने जिसको दीक्षा लेने की सम्मति नहीं दी है ऐसे प्रसंगमें शरीरसल्लेखना और कषायसल्लखना न करके भी आलोचना कर, निश्शल्य होकर घरमें ही संस्तरपर आरोहण करता है. ऐसे गृहस्थकी मृत्युको बालपंडित मरण कहत है.
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PARRI
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आलोचिदणिरसल्लो सघरे चेवारुहितु संथारं ।। जदि मरदि देसबिरयो तं बुलं बालपण्डिदयं ॥ २०८४ ॥ जो भत्तपदिण्णाए उवकमो वित्थरेण राणीट्टिो ॥ सो चे बालपण्डिदमरणे णेओ जहाजोग्गो ॥ २०८५ ॥ वेमाणिएसु कप्पोवगेस णियमेण तस्स उबवादो ॥ णियमा सिम्झदि उनकस्सएण वा सत्तमम्मि भवे ।। २०८६ ॥