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मन
मूलाराधना |
आश्वासः
अर्थ- खडे कायोत्सर्गसे खडे होकर, अथवा पर्यकादि कायोत्सर्गसे बैठकर, किंवा शयन कर एक बाजू पर पड़े हुए वह मुनिराज स्वयं ही अपनी शरीर क्रिया करते हैं. अर्थात उपसर्ग रहित अवस्थामें वे शौच, प्रतिलेखनादि क्रिया स्वयं ही करते है. ये क्रिया करते समय प्रतिष्ठापनासमितिमें तत्पर रहते हैं. यदि देव मनुष्य
और तियंचोंके द्वारा उपसर्ग होने लगा तो वे उसका प्रतिकार नहीं करते हैं. उनका धैर्यरूपी कवच अमेय रहता है. अंतःकरणमें जरासर भी भय नहीं रहता है. इंगिनीमरणके धारक मुनि पहिले तीन संहननों से कोई एक संहनन के धारक रहते हैं. उनका शुभ संस्थान रहता है. वे निद्राको जीतते हैं. महापली व शूर रहते हैं.
सयमेव अपणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ । सुपचारादणि धारको वित्तिनिदे निषिगा । २०४२ ॥ जाधे पुण उवसम्मे देवा माणुस्सिया ब तेरिच्छा ॥ ताधे गिप्पडियम्मो ते अधियासेदि विगंदभओ || २०४३ ॥
आदितियसुसंघडणो सुभसंठाणो अभिज्जधिदिकवचो ॥ जिदकरणो जिदणिदो ओघबलो ओघसूरो य ॥ २०४४ ॥ बीभत्थभीमदरितणविगुम्बिदा भूवरक्खसपिसाया ॥ खोभिज्जो जदि वि तयं तधवि ण सो संभम कुणइ ।। २०३५॥ स्वयमेवात्मनः सर्व प्रतिकर्म करोति सः॥ आकांक्षति महासंवा परतोऽनुग्रहं न हि ।। २१२४॥ देवमानवतिर्यग्भ्यः सपन्नमतिदारुणम् ॥ उपसर्ग महासत्वः सहतेऽसौ निराकुलः ॥२१.१५ ॥ दुःशीलभूतवेतालशाकिनीग्रहराक्षसैः ॥ म सभीषयितुं शक्योभीमरपि कथंचन ।। २११६॥
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