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मूलाराधना १७२६
afaast होते हैं, आके अधिकरणों में हमेशा उद्युक्त रहते हैं इनको भी कुशील कहते हैं. जो घृष्ट, निर्लज्ज, प्रमुच, और विकारयुक्त वेष धारण करते हैं. उनको भी कुशील कहते हैं.
संसक्त मुनिका वर्णन -
ऐसे मुनि चारित्रप्रियमुनिके सहवान रह है कि ये भी बन जाते हैं. जिनकी चारित्रप्रिय नहीं हैं ऐसे मुनिके सहवासमें रहनेपर जो चरित्रको अप्रिय मानने लगते हैं. नटके समान इनका आचरण रहता हैं. ये संसक्त मुनि पंचेंद्रियों के विषयों में आसक्त होते हैं. तीन प्रकारके गौरवोंमें ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातगौरव इनमें आसक्त होते हैं. स्त्री के विश्व में इनके परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं. गृहस्थोपर इनका अतिशय प्रेम रहता है. अवसन्नमुनिसंसर्ग से ये अवसन्न बनते हैं. पार्श्वस्यक संससे पार्श्वस्थ हो जाते है. कुशील के संसर्ग से कुशील और स्वच्छंद के संयोग होनेपर से बनते हैं. अर्थात् नट इनका आचरण हैं. यथाछंद मुनिका वर्णन - जो मुनि आगमके विरुद्ध आगमेन न कहा हुआ और च्छकल्पित पदा थका स्वरूप कहते हैं उनको यथानंद मुनि कहते हैं
वर्षाकालमें जो पानी गिरता है उसको धारण करना यह असंयम है. वस्तरा और कैचीसे केश निका लना ही योग्य है. केशलोच करनेसे आत्मविराधना होती है. सचित्ततृणपुंजपर बैठने से भी भूमिशय्या मूलगुण पाला जाता है. तृणपर बैठने से भी जीवोंको बाधा नही होती है. उद्देशादिक दोषसहित भोजन करना दोषास्पद नहीं हैं. आहार के लिये सच ग्राम में घूमनेसे अनेक जीवोंका घात होता है. घर में हि भोजन करना आच्छा है. अर्थात्
सतिका ही भोजन करना अच्छा हैं. हाथमे आहार लेकर भोजन करनेसे जीवोंको बाधा पोहोंचती है. ऐसा वे उत्सूत्र कहते हैं. इस कालमें यथोक्त आचरण करनेवाले मुनि कोई नहीं है ऐसा कथन करना इत्यादि प्रकारसे विरुद्ध भाषण करनेवाले मुनियोंके यथाछंद अर्थात् स्वछंदी मुनि कहते हैं.
अविभावदोसा कसायवसाय मंदसंवेगा
अच्चासाद्णसीला मायाबहुला णिदाणकदा || १९५१ ॥
आव