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मूलाराधना
आश्व सः
गंधाणियत्ततण्हा बहुमोहा सबलसेवणासेवी! सहरसरूवगंधे फासेसु य मुस्किदा घडिदा ॥ १९५४ ॥
लोकक्रियोदातरः परलोकक्रियालसाः ।।
मोहिनः शबलाः क्षुद्राः संक्लिष्टा दीनवृत्तयः ॥ २०३३ ।। विजयोत्या-थाभियसतपदा अतृप्तपरिग्रहताणा, बहुमोडा, अकानयटुलाः, शबलसघनापराः, शब्दादिषु विषयेषु भूठिताः, आस्रवटिप्ताः॥
मूलारा-गंथाणियत्ततण्डा अनिवृत्तपरिग्रहस्पृहाः । बहुमोहा अज्ञान बहुलाः । सबलसेवणासेवी गृहमारंभसेविमः । मुच्छिदा गृद्धिं गताः । घडिदा संबद्धाः ।।
अर्थ--परिग्रहम इनकी अभिलापा तृप्त होती नहीं बढती ही रहती है. ये आज्ञानसे घिरे रहते हैं. अर्थात आत्मस्वरूप का ज्ञान इन को नहीं होता है. गृहस्थोके आरंभादि कार्य ये करते रहते हैं. शब्द, रस. गंध, रूप, स्पर्श इन विषयों में वे अत्यासक्त होते हैं...
परलोगणिप्पिवासा इहलोगे चत्र जे सुपडिबद्धा ॥
सज्झायादीसु य जे अणुष्ठिदा संकिलिमदी ॥ १९५५ ।। विजयोदया-परलोयणिपिवासा परलोकनिस्पृष्टाः, पेडिकेम्वेव कापु प्रतिबद्धाः, स्वाध्यायादिष्यनुयताः, सडिएमतयः॥
मूलारा-णिपिपासा निस्पृहाः । अणुट्टिदा अनुद्यताः ।।
अर्थ-ये परलोकके विषय में निस्पृह होते हैं. परंतु ऐहिक कार्यों में ही इनका मन तत्पर रहता है. स्वाध्याय, आलोचनादिक कार्यों में इनका मन लगता नहीं है. इनके घुद्धीमें सक्लेश परिणाम रहते हैं.
सव्वेस य मूलुत्तरगुणेसु तह ते सदा अइचरंता ॥ ण लहंति खवोवसमं चरितमोहरस कम्मरस ॥ १९५६ ॥
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