________________
द्वाराधना
आभास
१७३३
जे सम्मत्तं खखया विराधयित्ता पुणो मरेज्जण्ह ।। ते भवणवासिजोदिसभोमेज्जा वा सुरा होति ॥ १९६३ ।। विराध्य ये विपयंते सम्यक्त्वं नष्टबुद्धयः ।
ज्योतिर्भावनभौमेषु ते जायन्ते वितेजसः ।। २०१० ॥ विजयोदया--जे सम्मत्तं खबगा ये क्षपकाः सम्यक्त्यं विनाश्य म्रियते भवनषासिनो ज्योतिका व्यंतर या भवंति ॥
सम्यक्त्व विराधनामरणफलमाह-- मूलारा--भोमेन्सः यनराः ।
अथ---जो आपक सम्यक्त्वका नाश कर कर मरण को प्राप्त होते हैं उनकी भवनवासि, व्यंतर अथवा ज्योतिक दयों में उत्पत्ति होती हैं.
दसणणाणविहूणा तदो चुदा दुक्खबेदाम्मीए॥ संसारमण्डलगदा भमंति भवसागरे मूढा ।। १९६४ ॥ वर्शनज्ञानहीनास्ते प्रच्युता देवलोकनः ।।।
संसारसागरे घोरे यंभ्रमन्ति निरन्तरम् । २०४१ ।। जियोदया-दसणणापाविहीणा सम्यग्दर्शनशानदीनास्तलः स्वर्गारस्युता दुःसवेदनोमांकि भवसागरे मूढा भ्रमंति, मंडलं गताः॥
घिराधनाधिगतदेवभावभंशोद दुर्जन्मपरंपरां प्रीतिमूलारा-दो चुदा तत्तरेषभाष भ्रष्टाः । दुक्खबेदणुम्मीए क्लेशानुभुतिबीचिके। मंडल आपतः ।।
अर्थ--सम्यग्दर्शन, सम्परज्ञान इन गुणों से रहित देव आयुष्य समाप्त होने पर स्वर्गसे भ्रष्ट होकर दुःखानुभवरूप तरंगों से भरे हुए संसारसमुद्र में अज्ञानसे अचेत होकर भ्रमण करते हैं.
१७३३