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मूलाराधना १६९९
अर्थ - - इस प्रकार ध्यान से प्रवृत्ति करनेवाला क्षपक जब पोसनेमें समर्थ होता है तनत्रयमें मेरी परिणति होरही है ऐसा अपना अभिप्राय वह हुंकारादिकचिह्नोंसे निर्धापकाचार्य को बतलाता है
हुंकारंजलि भमुहंगुलीहिं अच्छीहिं वीरमुट्ठीहिं ||
सिरचालणेण यता सण्णं दावेदि सो खबओ ॥ १९०४ ॥ हुंकारांगुलित्रमूर्द्धक पांजलिक्रियाः ॥
यथा संकेतमव्यग्रः क्षपकः कुरुते सुधीः || १९६५ ॥
विजयोदय - कारंजलि मुहंगुली मच्छी हुंकारेण वा अंजलिरचनया, स्रक्षेपेण, अंगुलिपंचकदर्शनेन उपदेष्टारं प्रति प्रसन्नता कि समाहितचितोऽसीत्युक्ते शिरःकंपनेन संज्ञां दर्शयति क्षपकः ॥
मूलारा --- अंजलि हस्तद्वयमुकुलीकरणं समुद्र भूझेप: । अंगुली अंगुलिपचकेन । सभ्णं प्रसन्नया या । किं समाहितचितोऽसीति निर्यापण पुष्टे सति स्वचेतनाम् ॥
अर्थ - - हुंकारसे, हाथ जोडनेसे भद्दे उठाकर, हाथके पांचो अंगुलिया दिखाकर उपदेशकको अपनी प्रसन्नता दिखाता है. तथा अपना मस्तक हिलाकर वहाष्टके द्वारा 'क्या तुम्हारा मन प्रसन्न है न इस प्रश्नका उत्तर देता है.
तो पडिचरया खवयस्स दिति आराधणाए उवओगं ॥
जाणंति सुदरहस्सा कदसण्णा कायखवपूण ॥ १९०५ ॥ संकेतवंतः परिचारकास्ते मेटाविशेषेण विवन्ति साधोः ॥ आराधनोद्योगमवेत शाखा धूमेन चित्रांशुमिव ज्वलन्तम् ।। १९६६ ।। इति ध्यानम्
विजयोदय ! – तो पडिचरगा ततः प्रतिचारकास्तस्य क्षपकस्याराधनायामुपयोगं जानंति श्रुतरहस्याः क्षपकेण
कृतसंकेताः || झाणचि
आश्वास
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