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मूलाराधना
आवासः
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विजयोदया- अम्मतरसोधीए अभ्यंतरशुद्धया नियमेन वाह्यान्परिग्रहास्त्यजति, अभ्यंतरदोष याह्यान् कायगतान् दोषान् करोति ।
बानमंबद्दानावानयोरंत शुद्ध शुध्यधीनस्वं आइमूलारा-स्पष्टम् || मनःशुद्धबधीनतां धामायशुद्धचोरभिधत्तेमूलारा- बाहिरे वाकासमतान् ॥
अर्थ-अंतरंग शुद्धीसे अर्थात परिणामोंकी निर्मलतासे बाह्य परिग्रहाँका नियमसे त्याग होता है. अभ्यंतर अशुद्ध परिणामोंसे ही बचन और शरीरसे दोषाकी उत्पत्ति होती है. अंतरंग शुद्धि होनसे बहिरंग शुद्धि भी नियम पूर्वमहोती है, पक्कि परिणाः मरिन होंगे तो मनुष्य शरीरसे और वचनोंसे अवश्य दोष उत्पन्न करेगा.
जध तंडुलरस कोण्डयसोधी सतुसस्स तीरदि ण कादं ॥ तह जीवस्स ण सक्का लिस्सासोधी ससंगस्त ॥ १५१७ ॥ ससंगस्याङ्गिनाकर्तुं लेश्याशुद्धिर्न शक्यते ॥
अंतराशोध्यते केन तुपयुक्तोऽपि तंदुलः ।। १९९८ ॥ चिजयोदया-मह तंदुलस्स यथा तेवुलस्य अभ्यंतरमलशुद्धिः कतु न शक्यते वाहानुयसद्वितस्त्र । नथा जीवस्य न शक्या लइयाशुद्धिः कर्नु सपरिग्रहस्य ।
संप्रथस्य लेश्यानामशक्यशोधनत्व माह--- मूलारा- स्पष्टम् ।
अर्थ-जैसे बाह्य तुषसहित तंडुलकी अभ्यंतर शुद्धि नहीं होती है. अर्थात तुष इटनेपर ही तंडुल खच्छ होता है वैसे परिग्रहसहित जबिके परिणामोंकी अर्थात लेश्याओंकी विशुद्धि नहीं होती है. इत उत्सरं लेयाश्रयेणाराधनाविकल्पो निरुप्यते
सुकाए लेस्साए उकस्सं अंसयं परिणमित्ता । जो मरदि सो हुणियमा उक्कस्साराधओ होई ।। १९१०॥
१७०६
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