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मुलाराधना
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अयोगकेवली शुक्लं सिद्धिसौधमियासया || चतुर्थं ध्यायति ध्यानं समुच्छिन्नक्रियो जिनः ।। १९५३ ॥
विजयोदद्यादकमवीचारं पूर्वोकथितकमी चार र द्वितत्यान् अवितर्कमवीचार, अणियहि सकलकर्मनमकृत्वा न वर्तत इत्यभिवर्ती अभिवियं समुप्राणापानप्रचारस काय चागनोयोग परिस्पंदनक्रियाया रत्वात अकिये। सीलनि शीलानामीशः शीलेशः पथास्यातचारित्रं शीलेशस्य भावः शैलेश्यं तत्सहचारि ध्यानमपि शैलेशयं । निरुद्धयोग अनि विद्यते पश्वाद्वाविध्यानमस्मादित्यपश्चिमं । उसमें सुकं परमं शुक्लं ॥
द्वितीयं परमशुक्लं लक्षयति-
मूलारा फलक दास्त नमकृत्या न निवर्तते निवर्ति । अक्रिरियं अक्रियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारं सर्वका यथा मनोयोग सर्वदेशपरिश्पंदन क्रियाव्यापारत्यात् । मलेसि शीलानामीशः शीलेशस्तस्य भावः शैलेश्यं यथाख्यात चारित्रं । वराहचर्याद्धद्यानमपि तथोत्तम । निरुद्धओगं निषिद्धनिःशेषकर्मासम् । अपमिं न विद्यते पश्चाद्भावि ध्यानमस्मादिति अपश्चिमम् । उत्तमं उत्कृष्टं संसारकारणकर्मनिर्मूलनात् ॥
अर्थ -- यह ध्यान वितर्क और विचाररहित है ऐसा पूर्वमें कह चुके हैं. जबतक संपूर्ण कर्मका नाश यह नहीं करता है तक यह निवृत्त नहीं होता है. इस ध्यान में सर्व श्वासोच्छ्रासका प्रचार बंद होता है. सर्व काय योग, वचनयोग और मनोयोग यहां नष्ट होते है. इस लिये यह ध्यान निष्क्रिय माना गया है. यह अठारह हजार शीलके भेद प्रकट होते हैं. इस लिये इस ध्यानके ध्याता शीलेश बनते हैं अर्थात् यथाख्यात नारित्रके धारक होते हैं. यह ध्यान संपूर्ण योगोंका निरोध करनेवाला है. इससे संपूर्ण कर्मोंके आसव यहां बंद होते हैं. इसको सबसे उसम शुक्ल ध्यान कहते हैं. यह अन्तिम ध्यान कहते हैं. यह अन्तिम
ध्यान हैं. तं पुण निरुद्ध जोगो सरीरतियणासणं करेमाणो ||
सव अपडिवादी ज्झायदि झाणं चरिमसुक्कं ॥ १८८९ ।।
विजयोदयानतरचतुर्थ शुरुभ्यानं निरुद्धयोगः सर्वेशः अतिशतिध्यानं ध्याति शरीरविनाशं कुर्वन, अयोग परिणामः केशानं चतुर्थशुपलं, तृतीयं तु सूक्ष्म काययोगपरिणामः केवलमिति भेदस्तृतीयचतुर्थयोः ।
आश्वासः
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