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जाराधना
आश्वासः
महर्षियाँका लिंग धारण किया है, मैने यदि व्रतोंके नाशकी पर्वा नहीं की तो यह योग्य नहीं होगा. यदि मैने आवश्यकादि पट् कर्म भी नहीं किये तो यह मेरे लिए योग्य नहीं होगा. दीक्षा धारण कर काम विकार में मैं अपनी आसक्ति कैसी करूं? धेर्य छोडकर चाहे जैसी प्रवृत्ति करना यह अनार्यपना का सूचक है. धैर्य छोडकर हीन होकर प्रवृत्ति करना योग्य नहीं हैं. यदि मेरे देहमें विकार रहेगा ही तो व्यर्थ मस्तक मुंडकर यति का आचरण करना उपक्ष है. इस प्रकार विचार कर आरंभ परिग्रहादिकॉमें बेराम्य बढाना चाहिए.
सिद्ध, अईत, आचार्य, उपाध्याय, जिनप्रतिमा, संघ, जिनधर्म इनके ऊपर भक्ति करना, विषयस विरक्त होना, इनके गुणोंपर मेम रखना, नम्रता, संयम, अप्रमाद स्वकृत्योंमें सावधान रहना, मादेव, क्षमा, आर्जव, संतो प ये गुण धारण करने चाहिये. आहारादिक चार संज्ञाओंको जीतना चाहिये, शल्य और गारवोंका त्याग करना उपसग और परीपहोंको जीतना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, परागसंयम, दस प्रकारका धर्मध्यान ये गुण धारण कर जिनन्द्रकी पूजाका उपदेश करना, निशकितादिक आठगुण, प्रशस्तरागी तपोभावना अर्थात मैं तपद्वरा काँका क्षय कगाएमी उत्कृष्ट अभिलापा, पांच समिनि, तीन गुप्ति इत्यादिक मुनियों का शुद्ध प्रयोगका वर्णन है.
गृहस्थाक शुद्ध प्रयोगका वर्णन
जो व्रत धारण किया है उसको धारण करना और पालन करने की इच्छा रहना, एक क्षणतक भी व्रतका नाश होना अनिए है, अकल्याण कारक है ऐसा समझना, इमेशा यतियोंके सहवास की इछा रखना, श्रद्धादिविधाके अनुसार आहारादिकदान देना, श्रमपरिहार करनेकी इच्छासे भोगोंको भोगकरी इनका मैं त्याग करनेमें असमर्थ हूं ऐसी अपनी निंदा करना. सदा घरका त्याग करने की इच्छा रखना, धर्मश्रवण करने पर मनमें अत्यानंदित होना, भक्तीसे पंच गुरुओंकी स्तुति करना. प्रणाम करना, पूजा करना, अन्य लोगों को भी जैनधर्म में स्थिर करना, उपगूहन करना, साधार्मिकोंपर प्रेम रखना, जिनेंद्रके भक्तोंपर उपकार करना जिनशाखका सत्कार पूजा करना, जिनधर्म की प्रभावना करना इत्यादिक गृहस्थोंक शुद्ध प्रयोग है.
अनुकंपा और शुद्ध प्रयोगके विपरीत परिणाम होने से अशम कर्म के अब आते हैं, अब संवरानुप्रेक्षाका आचार्य वर्णन करते हैंपुद्गलों में होनेवाले कर्मपर्याय जिस जीपपरिणामसे रुक जाते हैं उस परिणामको संबर कहते हैं,
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