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मूलाराधना
आश्वासन
विजयोदया-तबसा चेत्र ण मोकात्रो तपसब न सर्यकर्मापायो भवति, संयरहीनस्य जिनवचंने । स्रोतसि प्रविशति जलादि करने परिशुभ्थति।
यद्येवं सहि तदेवानुष्यं न संवर इत्यत्राहनालाग-मोक्खो भत्रकर्मापगमः । उक्तं च..
मोक्षः मंचरह नेग तपसा न जिनागमे !
रविणा शोग्यते नीरप्रवेश मति कि सरः ॥ यदि तप से आत्मा शुद्ध होता है तो तप ही करना चाहिए, संवरकी क्यों आवश्यकता है ? आचार्य इस शंका का उत्तर देते हैं
अर्ध-जो मुनि संवररहित है केवल तपश्चरणसे ही उसके कर्मका नाश नहीं हो सकता है ऐसा जिनबचनमें कहा है. यदि जलप्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब का सूखेगा ? अर्थात् महीं सूखता है.
एवं पिणडसंवरबम्मो सम्मत्तवाहणारूढो ॥
सुदणाणमहाधणुगो झाणादितबोमयसरेहि ॥१८५५॥ चिजयोदया-एवं पिणदसंबरघम्मो एवं पिनसंबरफबचा, सम्यक्त्ववाइनारूढः, श्रुतशानवापथरस, स्याना. दितपोमयशरैः ॥
चतुर्विधाराधनानिष्ठः संवरसहितया निर्जरया कर्मारिच निःशेच्याम्नयामनंतज्ञानाविराज्यभियं प्राप्नोति इति गाथाद्वयेनोपसंहरति
मूलारा-पिणढसंवरवम्मो बहालवनिरोधस माइः ।
अर्थ-जिसने संत्रररूपी वकृतर पहना है, जो सम्यग्दर्शनरूपी वाहनपर चहा है. जिसने सम्यग्ज्ञानरूपी धनुष्य हाथ में लेकर भ्यान और तपरूपी शर-बाण सम्यग्ज्ञानरूप घनुष्य के ऊपर जोड दिये हैं.
संजमरणभूमीए कम्मारिचमू पराजिणिय सव्वं ॥ पावदि संजमजोहो अणोवमं मोक्खरज्जसिरिं ॥ १८५६ ॥