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आबासा
महाराधना
अर्थ-जैसे प्रज्वलित अग्नि बढी भारी तृण शशिको भी जलाकर भस्म कर दालती है. वैसी तफरूपी अमि पहुत मोटाभी कर्मसमूह तृण के समान नष्ट कर देती है.
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पसः कर्मविनाशनकममुपदर्शयत्युत्तरगाधा
लम्मं विपरिणमिजद सिरिमोनएण सुलत्रेण ॥ तो तं सिंणहमुकं काम परिसडदि धूलिव्ब ॥ १८५२ ॥ स्वयं पलायते कर्म तपसा बिरसीकृतम् ।।
रजोऽयतिष्ठत कुत्र नीरसे स्फटिकमाने ।। १९२४ ।। विजयादया-फम्म यि परिणमिजदि कर्मण्यांप अन्पधा भाचं नीयते, केण सुतवेण शानदर्शनवरसदमाविना तपसा । सिंगापरसोसगेण कर्मपुद्रलगतस्नेहपरिणामविशोषणकारिणा । तो पश्चात् । स्नेहपरिणामविनाशोत्तरकालं। कम्म परिसइति कर्म परितोऽपयाति,सिंगमुकं स्तहमुकधुलीव । दृश्यते हिस्नेहाबंधमुपागतानां तत्क्षतः। परस्परतो वियोगः यथा जलेनैव पिण्डतागतानां सिकतामां शुरके जले वियोगशपधमामता।
सपसः कर्मविनाशनक्रम कथयत्ति --
मुकारा-विपरिणमिजयि अम्प्रथाभाय नीयसे जीवपरतंत्रीकरणशक्ति त्याज्यते इत्यर्थः। अन्ये परिसोसिज्जदि इति पठति सिणहपरिसोसगेज कर्मपुरलगतस्नेहपरिणामविशोषणकारिणा । सुतरेण रत्नत्रयसहभाविना तपसा। धूलीय यथा जलाद्वधं गतानां सिकताना जळे शुष्के परस्परतोऽपगम 1 एई कषायादिकृतस्नेहाज्जीवेन सहकलोलीमा गतानां कर्मपदलानो तपसा सनत्यं गामेतानां ततोऽपयम इत्यर्थः ।। उस य---
स्वयं पलायने कर्म तपसा विरसीकृतं ।।
रजोऽबतिप्रेत कुत्र नीरसस्फटिकमनि ।। तपश्चरण के कर्म विनाशक्रमका स्वरूप कहते है....
अर्थ-तपश्चरणसे अर्थात् ज्ञान, दर्शन चारित्रके साथ रहनेवाले तपसे कर्ममें फरक किया जाता है. अर्थात् जीवको परतंत्र करनेका स्वभाव कर्ममें रहता है तपके द्वारा उस स्वभावका नाश होता है. यह तपश्चरण कममें जो स्नेहशक्ति थी उसको नष्ट करता है. जिससे कर्म आत्मासे संबंध छोड़कर चला जाता है. जैसे स्नेहसे अलि
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