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मूलाराधना
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होनकी इच्छा करता है. दुसरों के द्वारा उनके गुणोंका वर्णन सुनकर संतुष्ट होता है. इस प्रकार धर्मानुकंपा करनेवाला जीर साधुके गुणोंको अनुमोदन देनेवाला और उनके गुणोंका अनुकरण करनेवाला होता है. आचार्य बंधके तीन प्रकार कहते हैं. अच्छे कार्य स्वयं करना, कराना, और करनेवालों को अनुमति देना इससे महान् पुण्यालव होता है. क्योंकि महागुणोंमें प्रेम धारण कर जो कुत कारित और अनुमोदन प्रवृत्ति होती है वह महापुण्यको उत्पन्न करती है.
मिश्रानुकंपाका वर्णन-महान् पातकोंके मूलकारणरूप हिंसादिकोसे विरक्त होकर अर्थात् अणुव्रती बनकर संतोष और वैराग्य में तत्पर रहकर जो दिग्विरति, देशविरति, और अनर्थ दंडत्याग इन गुणवतोको धारण करते हैं, जिनके सेवनसे महादोष उत्पन्न होते है ऐसे भोगोपभोगाका त्याग कर बाकीके भोगोपभोग के वस्तुओंका जिन्होंने प्रमाण किया है, जिनका मन पापसे भययुक्त हुआ है. अर्थात् पापसे डरकर विशिष्ट देश और कालकी मर्यादा कर जिन्होंने सर्व पापांका त्याग किया है अर्थात् जो सामायिक करत है. पोंके दिनमें संपूर्ण आरंभका त्याग कर जो उपवास करत है एसे संयतासंयत अर्थात गृहस्थोंपर जो दया की जानी है उसको मिश्रानुकंपा कहते हैं. जो जीवोपर दया करते हैं. परंतु दया का पूर्ण स्वरूप जो नहीं जानते हैं. जो जिनसूत्रसे बाह्य हैं, जो अन्य पाखंड गुरूकी उपासना करते हैं, नम्र और कप्टदायक कायक्लेश करते हैं इनके ऊपर कृपा करना यह भी मिश्रानुकंपा है, क्योंकि गृहस्थोंकी एकदेशरूपतासे धर्ममें प्रवृत्ति है वे संपूर्ण चारित्ररूप धर्मका पालन नहीं कर सकते हैं. अन्य जनोंका धर्म मिथ्यात्वसे युक्त है, इसयास्ते गृहस्थधर्म और अन्यधर्म दोनोंके ऊपर दया करनेसे मिश्रानुकंपा कहते हैं
सुदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टिजन, कुष्टि मिथ्यारष्टि जन ये दोनों भी स्वभावतः मार्दवसे युक्त होकर संपूर्ण प्राओंके ऊपर दया करते हैं इस दयाका नाम सीनुकंपा है.
जिनके अवयव दृट गये हैं, जिनको जखम हुई है, जो बांधे गये हैं, जो स्पष्ट रूपसे लूटे जारहे हैं ऐसे मनुष्योंको देखकर, अपराधी अथवा निरपराधो मनुष्यों को देखकर मानो अपनेको ही दुःख हो रहा है ऐसा मानकर उनके ऊपर दया करना यह सर्वानुकंपा है,
हरिण, पक्षी, पेटसे दौडनेवाले प्राणी, पशु इनको मांसादिकके लिये लोक मारते है ऐसा देखकर अथवा
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