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मूलाराधना
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स च द्वेधा यतिगृहिगोचर मेदात् । तत्र यतिशुद्ध प्रयोगो निमनशीलस्वाध्यायध्यानादिलक्षणः । गृहिशुद्धप्रयोगस्तु हिंसादिविरतिरूपाणुव्रतशीलादिलक्षणः । पुण्यस्य सद्वेद्यसम्यक्त्व र ति हास्य वद शुभायुर्नामगोत्ररूपस्य कर्मणः । सवदुदारं पुलानां पुण्यत्वपयागमनम् ॥ आखवानुप्रेक्षा ॥
कर्मके शुभकर्म और अशुभ कर्म: ऐसे दो भेद हैं उनमें किस कर्मका कोनसा आम्रव है इसका विवेचन आचार्य करते हैं-
अर्थ --- अनुकम्पा दया, शुद्धोपयोग - आत्मा के निर्मल परिणाम ये पुण्यकर्मके आगमनद्वार हैं इन परिणा'मोंसे पुण्यकर्मका पर्याय पुष्गलमें उत्पन्न होता है. सातावेदनीय, सम्यक्त्यप्रकृति, रति, हास्य, पुंवेद, शुभनाम कर्म , और उच्च गोत्र, शुभआयु इनको पुण्य कहते हैं. इनसे जो भित्र कर्म है उसको पाप कहते हैं.
अनुक्रया-पप-हमुझे छीनेद है धर्मातुरूपा, मिश्रानुकम्पा और सर्वानुकम्पा, धर्मानुकंपा का स्वरूप
इस प्रकार है
जिन्होंने असंयमका त्याग किया है. मान, अपमान, सुख दुःख, लाभालाभ, तृण सुवर्णं इत्यादिकों में जिनकी बुद्धि रागद्वेषरहित हो गयी है, इंद्रिय और मन जिन्होने अपने वश किये हैं. उग्रकपाय और विषयोंको जिन्होंने छोड दिया है, दिव्यभोगोंके दोष देखकर जो वैराग्ययुक्त हो गये हैं, संसारसमुद्रकी भीति से रात में भी अल्पनिद्रा लेनेवाले, जिन्होंने संपूर्ण परिग्रहों को छोडकर, निःसंगता धारण की है, जो क्षमादि दश प्रकार के धर्मो में इतने तत्पर रहते हैं कि मानो स्वयं क्षमादि दशधर्म स्वरूपही बनेहो ऐसे संयमी मुनिओके ऊपर जो दया करना उसको धर्मानुकंपा कहते हैं.
यह धर्मानुकंपा अंतःकरणमें जब उत्पन्न होती है तब विवेकी गृहस्थ यतिओंको योग्य अन्नपाणी, सतिका पधादिक पदार्थ देता है, अपनी शक्तिको न छिपाकर वह मुनि के उपसर्गको दूर करता है. हे प्रभो ! आप आज्ञा दीजिये ऐसी प्रार्थनाकर सेवा करता है. यदि कोई मुनि मार्गभ्रष्ट होकर दिङ्मूढ हो गये हो तो उनको मार्ग दिखाता है. मुनियों का संयोग प्राप्त होनेसे हम धन्य है ऐसा मनमें समझ कर आनंदित होता है. सभामें उनके गुणोंका कीर्तन करता है. मनमें मुनिओंको धर्मपिता, गुरु, समझता है. उनके गुणोंका चिंतन मन में हमेशा करता है. ऐसे महात्माओं का फिर कच संयोग होगा? ऐसा विचार करता है. उनका सहवास हमेशाही
आश्वास
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