________________
मूलाराधना
१६३६
रूप आत्मपरिणामों का निमित्त पाकर विशिष्ट पुद्गलद्रव्य कर्मपयायको धारण करता है. इस लिये कर्मात्मकपर्यायको आत्माका मिथ्यात्वादिरूप परिणाम कारण है. उसीको आसव भावास्रव कहते हैं.
ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलदचेहिं सव्वदो लोगो ॥
हमे बादरेहिं य दिसादिस्सेहिं य तहेव || १८२४ ॥ अक्षुषा पश्यैः स्थूलैः सूक्ष्मेश्वपुलैः ॥
विविधैर्निचितो लोकः कुंभो धूमैरिवाभितः ॥ १८९५ ।। विजयोदया - ओगाढमाढणिविदो अनुप्रवेशगाढं निचितः पुग्गल पुनलयैः सम्यदो लोगो कात्न्यैन लोकः । सुइमेदि पाइरेडिय सूक्ष्मैः स्थूलैव | दिस्लादिस्सेहि चक्षुषा दृश्येश्यैश्व तदेव तथैव । पतया गाथया कर्मत्यपर्याय योग्यानां पुलव्याणां सर्वलोकाकाशे बहूनामस्तित्वमाख्यातं ॥
कथं जीवप्रस्थितत्वं कर्मायोग्यद्रलानां संभवतीत्याशंकायामाद-
मुलारा - आगाढगादणिचिदो अवगाहनमवगाढं परस्परानुप्रवेशः तेनागाई निर्भरं विचिदो व्याप्तः । दित्सादिस्नेहिं चक्षुषा दृश्यैरदृश्यैन ।
अर्थ - - इस जगत् के प्रदेशों में पुद्गलद्रव्य अतिशय निषिडरूपसे भरा हुआ हैं. अर्थात लोकाकाशका एक भी प्रदेश इस पुद्गलद्रव्यसे रिक्त नहीं है. इस लोकाकाशमें सूक्ष्म, स्थूल, नेत्रसे देखने योग्य व नहीं देखे जानेवाले ऐसे पुल भरे हैं. इस गाथासे कर्मत्वपर्यामको प्राप्त होने की योग्यता रखनेवाले बहुतसे पुद्गलद्रव्यांका आकाश में अस्तित्व है ऐसा सूचित होता है.
के से आलवा हत्य श्राद
मिच्छतं अविरमणं कसाय जोगा य आसवा होंति ॥ अरहंत अत्सु विमोहो होइ मिच्छतं ।। १८२५ ॥ मिथ्यात्याव्रतको पावियोगानश्रास्त्रबान्विदुः ॥ मिथ्यात्वमर्हदुक्तानां पदार्थानामरोचनम् ॥ १८९६ ।।
माश्वासः
७
१६३६