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मुलाराधना
आश्वासा
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धुट्टिय रयणाणि जहा रयणदीवा हरेज्ज कठाणि ॥ माणुसभ वि धुट्टिय धम्म भोगे भिलसदि तहा ॥ १८३१ ।। नृत्वे बोक्षसुत्रं मूढो धर्म मुक्त्वा निषेवते ॥
लोष्टं गृह्णात्यसौ मुक्त्वा रत्नद्वीपेऽमधं मणिम् ॥ १९०२ ।। विजयोदया-धुष्ट्रिय रयणाणि जहा रत्नानि त्यक्त्वा यथा, रयणदीवा हज कहाणि रत्नद्वीशकाष्ठान्थाहरति । तहासय विद्यासमभ : धाः पिलाजोगे भिलसदि भोगाम्यांछति । तदुक्तं भवति-यने कसार मानास्पद रत्नही सुदुर्लभ प्रापय मुधा लब्धान्यपि रत्नान्यनुपादाय असागर्मिधनं सुलभं साम्बुद्धया वधा कश्चिदाहरति अहः । तथानक गुणरत्माकर मनुष्यभवं दुग्धा पमनान्य अती पराधीन अल्पकालिक बिषयसुखमभिलपति ॥
अनेकगुगरत्नाकर सुदुल मनुष्य भवनामाच पायत्तमनपर्क स्वल्पकालं विषयमुग्यमभिलगत अनुश चिनिमूलारा-रयणागि सुधा लब्धान्यपि हीरकादीनि । रयणसीया रत्नदीपात । हरेज सारदुलभबुद्धयाऽनयेत् ।।
अर्थ--जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में जाकर भी रन्नोंका त्याग कर काष्ठ लाता है वैसे मनुष्यभव में भी कोई धर्मको छोड़कर भोगोंकी अभिलाषा करता है. अभिप्राय यह है कि, अनेक उत्कृष्ट रत्नीका स्थान जो रत्नदीप जो कि बहुत दुर्लभ है वहां जाकर सहज प्राप्त हुए रत्नाको ग्रहण न कर जो तुच्छ निःसार और अयत्नप्राप्य इंधनों को सारयुक्त समझकर उनका संग्रह करता है वह जैसा मुखशिरोमणि समझा जाता है वैसा अनेकगुणरत्नाकी मनुष्यभर खान है. ऐसा अलभ्य मनुष्यजन्म पाकर यदि दृप्ति उत्पन्न नहीं करनेवाला, पराधीन अल्पकाल तक टिकनेवाला ऐसा विषयसुख मनुष्य चाहता है तो यह चाइना रत्नहीप में जाकर लकडिओंका संग्रह करने के समान है.
गंतुण गंदणवणं अमय छंडिय त्रिस जहा पियइ ॥ माणुसभवे वि छड्डिय धम्म भोगे मिलसदि तहा ।। १८३२ ॥ यो नृत्वे सेवते भोगं हित्वा धर्ममकल्मषम् ।।
असौ विमुच्य पीयूषं विषं गृह्णाति नंदने ।। १९०३ ॥ विजयोन्या-गंभूण वणवणं गत्वा नंदनवन । अमर्य छलिय अमृत त्याचा । विसं जहा पिया विष यथा पियति कश्चित् । माणुसमवे चि छद्रिय मनुष्यभधेपि त्यक्त्वा । धम्म धर्म । भोमेभिलसदि तहा,मोगानाभिलाषरति तथा ।
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