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मूलाराधना
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जीवका यह शरीर है ऐसा निश्चय नहीं होता है. द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परि परिवर्तन, काल परिवर्तन और भाषपरिवर्तनरूपी भोवरे इस संसारसमुद्र में हमेशा भ्रमण करते हैं. इस संसारसमुद्र में चार गतिरूपी बडे बडे द्वीप है, और यह समुद्र अनंत है.
हिंसादिदोसमगरादिसावदं दुविहजीवबहुमच्छं ॥ जाइजरामरणोदयमणेयजादीसुदुम्मायं ॥ १७७० ॥ रागद्वेषमवक्रोधलोभमोहावियादास ॥
अनेकजातिकल्लोले सस्थावरबद्ध ।। १८४१ ॥ वियोव्या-हिंसादिवोसमगरविसावद हिसान्तस्म यात्रापरिग्रह हिंसादिदोषास्ते मकरादयः भ्यापवा यस्मिस्तं । दुविधजीवषमस्थं मिथिधाःस्थावर जगमीयकरपा जीया तिं द्विविधा जीपासते पाहयो मस्या पस्मिस्तं । जादिजरामरणोदयं जातिरभिनषशरीरमहणं, अरा नाम गृहीतस्य शरीरस्य तेजोवलादिमिरुनता, मरण शरीरादपगमः पतानि शातिजरामरणानि चदर्थ उद्गतिस्मिस्तं । अणेयजादीसुम्मीर्ग श्रमेकानि आसिशतानि ऊमयो यस्मिस्तं । एकद्विविधतुपेद्रियजातयः प्रत्येकमयांतरभेदापेक्षया पृथियोकायिका, अप्कार्यिकास्तेजस्कायिकषमस्पतिकायिका इति । एकेद्रियजतिरने का सिपाधिकल्पा पृथिवी। आपोऽपि हिमधिमानीकरकादिभेदभिमाः। अनिरपि प्रदीपोषमुकमर्थिरित्य नेकभेदः ॥ वायुरपि गुजामण्डलिकादिविकल्पः या वनस्पतयोपि तरुगुल्मबल्लीलतातणाविभेदास्ततो जातिशतानीत्युक्तं ॥
मूलारा-दुविधाजीचा स्थावरानसाश्च । जादि अभिनवशरीरहणं । उदचं जलं । जादीसद जातीनामेकेन्द्रियाविजातिभेदानां पृथिवीकायिफाकानिकाद्यांतरजातिप्रभेदयुक्तानां शतानि ।
अर्थ--हिंसा असत्य, चोरी, कुशीलसवन और परिग्रहाभिलाषा इत्यादि पानकरूप मगर वगैरह क्रूर हि प्राणी जिस में हैं, उसस्थावर जीव रूपी मत्स्य जिसमें हैं. जन्म-नवीन शरीर ग्रहण करना, जरा-ग्रहण किये हुए शरीरमैसे तेज, चल वगैरह शक्तिया कम होते जाना, मरण-शरीरसे आत्माका गमन होना इत्यादि अवस्थाओंसे यह संसार समुद्र उन्नत हुआ है. अनेक. एकेद्रियादि सैंकडो जातिरूपी तरंग जिसमें है ऐसा यह संसारसमुद्र महाभयानक है, जातिकर्मके एकद्रिय, दींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेंद्रिय जाति ऐसे पांच भेद हैं. इन प्रत्येक जातिओंके अवांतर भेट बहुतं है. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक