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मुलासधना
आश्वासा
२९ जिसको अकस्मात् भय उत्पन्न होता है वह प्रथम ही अर्थात भय प्राप्त होनेके पूर्वमें भय युक्त नहीं होता है. परंतु देव भयकी वार्ता प्रथमही जान लेते हैं अतः वे प्रथमही दुःखी होते हैं. जैसे अपने वध होनेकी बात जिसको प्रथमही मालूम पडी है वह मनुष्यु प्रथम ही भयको प्राप्त होकर अनंतर वधयुक्त हो जाता है.
३० इसलिए इस संसारमागरमें विचार करनेवाले पुरुषको कहां भी सौख्य नहीं है ऐसा अनुमर आयेगा. अतिशय सुखमें आसक्त ऐमें भी पापीको यदि अणुमात्र भी दुःख हो जायेगा तो भी गृखमें न्यूनता है पसा मानना पडेगा. तात्पर्य यह है फि. जिममें अणुमात्र भी दुःख हो वह सुख है नहीं.
जस भोजन करत यमय अन्नमें छोटामा भी कश निकला ती व अन्न कुलीन मनुष्यको अप्रिय होता है. वैसा सुखमें यदि अल्प भी दोष होगा तो वह सुन्च बुद्धिमानोंको अप्रिय लगता है ।
३१ पीने के लिए जो पानी दिया गया है उसमें यदि मूत्रका एक भी बिंदु पडेगा तो वह पानी दूषित होता है. वैस उत्तम सुखम यदि थोडासा भी दुःख उत्पन्न होगा नो वह सुख दोषयुक्त ही भानना चाहिए.
२ यदि अनेक गुणांस सी संपन्न है ना भी एक दफे भी जिसने व्यभिचार किया है उसको दयाद्र मनुष्य भी छोड ही देगा. वसे धुद्धिमान लोग जिसमें दोप दीखता है ऐस मुखकी इच्छा नहीं करते हैं.
अभिप्राय यह निकला कि यह संमार दुःखमय है. इस संसारमै कुथित मांस रक्तादि से भरे हुए गर्भम निवास करना पडता है. इसलिए इस संसारबासका धिकार हो. शास्त्रमें इस विषयमें एसा कहा है-इस मनुष्य जन्ममें आनेकेलिए गर्ममं रहना पड़ता है. इसका स्मरण होने में दुःख होता है. गर्भ में आकर भी कोई जीवका पतन भी हो जाता है. यह शरीर भी अपवित्र है. और यहांक भोग भी राम के समान है. इत्यादि विचार करने से देवोंको गर्भ में प्रवेश करने के समान दुःख होता है.
इध कि परलोगे वा सत्तू पुरिसस्स हुंति णीया वि ॥ इहई परत वा खाइ पुन्तर्मसाणि सयमादा ॥ १८०४॥ यन्त्र चादति पुत्रस्य जमन्यपि कलेवरम् ॥ तत्तनामुत्र वा बंधी शत्रुत्वे कोऽस्ति विस्मयः ॥ १८७५ ॥