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मूलारावना १६२६
ततः भवतां । निंया पांडाल कुणः काणी दुभंगो मूर्खः कृपण इत्यादिकां ॥ धुर्दिन स्तुतिं च कुलीनो रूपवान वाग्मी आयः प्राह इत्यादिकां यशस्वीर्तिरुयात् । एवं वलणं दुःखं असयोदयात् । अमुदयं देवमनुजनदजं सुखं पायात् । पुरिसितिणस व पुरुषायं च स्त्रीधे नपुंसक चाः प्राप्नोति ॥
मुलारा---अद्वृित्तं आढ्यत्वं भान्तयोपशमानेश्वरत्वं प्राप्तो विपाकः, पान, सूरिः कृपण इत्यादिकं निद्रां प्राप्नोति अयशः कर्त्या || बस दुःखं । श्रभ्युदयं उत्तमदेवस्य मानवस्त्र भयात् ॥ अर्थ--इस जीवको अनेकगर लामांतराय कर्मका उदय होनेपर दारिद्र्य प्राप्त होता है. वैसे इसको अनेक वार धनमाप्त होनेसे घनश्यपनोभी हुआ था. लामांतराय कर्मके क्षयोपशमसे यह जीव धनाढ्यभी हुआ था. बहुतबार मिला हुआ धनभी नष्ट हुआ है. इसकी बहुतबार तूं चांडाल हैं. लंगडा है, अंधा, कृपण, मूर्ख है. ऐसी निंदा भी हुई है. अयशस्कीर्ति कर्मके उदयसे जगतमें जीवकी निंदा होती है. इसी प्रकार असातावेदनीय कर्मके उदयसे अनेकप्रकारके संकटोंसे यह जीव ग्रस्त होता है. देवगतिके और मनुष्यके सुखोंको अभ्युदय कहते हैं. यह अ भ्युदय सातावेदनीय कर्मके उदयसे प्राप्त होता है. यह जीव पुरुष, स्त्री और नपुंसक इन पर्यायकोभी अनेकवार प्राप्त हुआ ई.
कारी होइ अकारी अप्पडिभोगो जणो ह लोगम्मि || हु
कारी व जनसमक्ख होइ अकारी सपडिभोगो || १८०९ || निर्दोषमपि निःपुण्यं सदोषं मन्यते जनः ॥
मपि पुण्या निर्दोषं पुरुषः पुनः ॥ १८८० ॥
विजयोदया-अकारी अपि दोषमकुर्वन्नपि कारी भवति, अपडिभोगो जनो पुण्यरहितो जनः। कारीवि कुर्य नयनाचार, जनसमक्खं जनानां प्रत्यक्षं अकारी होति दुरावारो न भवति । पडिभोगो पुण्यवान् ॥
मूलारा -- कारी शेषकर्ता । अकारी दोपमकुर्वपि । अध्यभागो अपुण्यः । कारी वि शेषं कुर्वन्नपि । रूपडि
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भागो पुण्यः ॥ अर्थ -- जो मनुष्य पुण्यराहत होता है तब उसने दोष नहीं भी किये हो तो भी वह दोषी माना जाता है तथा अब पुग्योदय होता है तब अनाचारी होकरभी निर्दोषी माना जाता है. लोक उसकी निर्दोष समझते हैं.
आश्वास
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