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| आधासा
मूलाराधना
विजयोदया-भारं नरो वहतो भार बहन कहंचि भारमोहिय कस्मिबिशे काले व भारमयतार्य । विस्समदि विश्राम्यति । दहमरवाहिणी पुण देहसागरोद्वादिनो जीवाः पुनः । नभनि खणं पि विस्समिटुं न लभते क्षणमपि विनाम कतु । औदारिकनिधिको विनष्टयोगि कार्माण जसपोरयस्थानालु ॥
मूलारा- कहिं पि देशे काले च । ओहिय अवतार्थ । गोइत्यादि औदारिकवकियिकयोविनष्टयोरपि कार्मण तैजसयोरवस्थानान् ।
अर्थयोझा उठानेवाला मनुष्य किसी स्थानमें कुछ कालतक बोझा अपने मस्तकपरसे उतार कर विश्रांति लेता है. परंतु देहका भार बहनेवाला यह संसारी जीव एक क्षणमात्रभी देहभारको उतार कर विश्रांति नहीं ले सकता है. यद्यपि औदारिक और वैक्रिषिक शरीर इस जीवके कुछ कालतक अर्थात् एकसे तीन समयतक नहीं रहते हैं तोभी कार्मण और तैजस शरीर इस जीवक साथ सतत रहते है इसलिये इसको सदाही विश्रान्तिका अभाव है.
कम्माणुभावदुहिदो एवं मोहंधयारगहणम्मि ॥ अंधोव दुग्गमग्गे भमदि हु संसारकतारे ।। १७९३ ।। यंभ्रमीति चिरं जीवो मोहांधतमसावृतः ॥
संसार दु:खितस्वान्तो विचक्षुरिव कानने ॥ १८६६ ॥ बिजयोदया-कम्माणुभावहिदो असवद्यादिपापकर्ममाहात्म्य जानतदुःखः । एवमुक्तन कमेण । संसार कतारे भमदि संसारकांतारे भ्रमति । कोश मोहंधयारगहाणे मोहांधकारगहने ! अंधो व दुग्गमम्गे अंध इष दर्भमार्ग ॥
मूलारा-कम्माणुभाव असद्वेद्यादि पापकर्ममाहात्म्यम ।।
अर्थ--अमातावदनीयादि पापकर्मक प्रभावसे दुःखित होकर यह जीव पूर्वोक्त क्रमसे संसारखनमें भ्रमय करता है. यह संमारयन मोहरूपी अंधकारसे व्याप्त होनेस अधा मनुष्य जैसे खराब रास्तम जाता दुआ दुःख पाता है मसारी मनुष्यभी इसमें दुःखी होता है,
दुक्खस्स पडिगरेतो सुहमिछतो य तह इमो जीवो ॥ पाणवधादीदोसे करेइ मोहेण संछण्णो ॥ १७९५ ।।