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मूलाराधना
आश्वास
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सव्व वि पुगगला खलु कगसो मुत्तुझिया य जीवेण ।।
असई अर्णतखुनो पुग्गलपरियट्टसंसारे ।। अर्थ-जैस घटीयंत्र पूर्व जलका त्याग करके दुसरा दूसरा जल ग्रहण करता है वैसे यह आत्मा भी पूर्व शरीरका त्याग कर उत्तरोत्तर भिन्न भिन्न शरीर धारण करता है. इस प्रकार यह जीप पूर्व शरीरका त्याग कर और उत्तर शरीर को ग्रहण कर संसारमें अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है. नाना प्रकारके शरीर को द्रव्य कहते हैं इनको धारण कर जीवका जो संसारमें भ्रमण करना है उसी को द्रव्यसंसार कहते हैं. इस प्रकार स्थूल बुद्धिके लोगों को समझाने के लिए आचार्यने द्रव्यसंसारका वर्णन किया है. द्रव्यपरिवर्तनका इस प्रकारसे भी स्वरूप कहा है
द्रव्यपरिवर्तनके नोकर्म परिवर्तन और कर्मपरिवर्तन ऐसे दो भेद है--
नो कर्म परिवर्तन-जीन शरीर ( औदारिक, वैक्रियिक और आहारक) और छह पर्याप्ति (आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छरास, भाषा और मन इनके योग्य पुद्गल एक जीवन एक समयमें ग्रहण किये उनमें स्निग्ध रूव, स्पर्श, वर्ण, गन्ध जैसा तीय, मंद, मध्यम भावसे था द्वितीयादि समयमें ये पुल निर्जीर्ण हुए. तदनंतर अ. गृहीत पुगलोंको अनंतवार उलंघकर, मिश्रवर्गणाको भी अनंतवार ग्रहण कर मध्ये गृहीत नामक वर्गणाको भी अनंतबार ग्रहण कर पुनः ये ही वर्गणा उसी जीवको प्रथम समयमै जैस ग्रहण की गई थी वैसी जर ग्रहण की जाती है तब नोकर्मपरिवर्तन होता है.
कर्मद्रभ्य परिवर्तनका स्वरूप कहते हैं
एक समयमें एक जीवने आठ प्रकारके कर्म रूप से जो पुद्गल ग्रहण किए थे ये समयाधिक आवील प्रमाण काल व्यतीत होनेपर द्वितीयादिक समय में निर्जीण हो गये. तदनन्तर पूर्वोक्त क्रमानुसारही वे ही पुद्गल उसी जर्जावको जब कर्मरूप वन जाते हैं तब कर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है.
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रंगगदाडो व इमो बहुविहसंठाणवण्णरूवाणि ॥ गिहदि मुच्चदि अठिदं जीवो संसारमावण्यो । १७७४ ॥
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