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मुलाराधना
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farari मूको वामनः पामनः कुणिः ॥ दुर्वर्णो दुःस्वरो मूर्खचुल्लचिपिटनासिकः । १८५८ ॥ व्याधितो व्यसनी शोकी मत्सरी पिशुनः शठः ॥ दुगो गुणविद्वेषी मंचको जायते भवे ।। १८५९ ।। क्षुभितस्तृषितः श्रांतो दुःख भारवशीकृतः ॥ एकाकी दुर्ग में दीनो हिंडते भवकानने ।। १८६० ॥
विजयोदया - जच्च धवधिर भूगो जात्यंधो बधिरो, मूकः । छादी शुदा पीडित, तिसिदो तृपाभिभूतः । षणे च पगागी भ्रमदि असहायो यथा वने भ्रमति । तथा सुनिरपि चिरकालमपि जीवो जम्मवणे जन्मचने भ्रमति । णसिद्धि पदो नए सिद्धिमाः ॥ उक्तं च- कलुषचरितैर्नानस्संचितकर्मभिः । करणविकलः कमजूतो भवार्णवपाततः । सुचिरमवश दुःखार्तोऽयं निमीलितलोचनो भ्रमति कृपणो नत्राणः शुभेतर कर्मकृत् ॥ श्रवणविकलो वाग्ग्रीनो ऽशो यथातलोचनः। तृषितमलिनो नष्टोऽव्यां चरेदसहायक अलकुदसकृत् गृण्डन मुंधराच देवतां । भ्रमति सुचिरं जन्मादव्यां तथादेशकः ॥ इति ॥
मूलारा-- छादो श्रुतिः । एगामी असहायः ॥
अर्थ-कभी यह जीव जन्मसेही अंधा, बहिरा, गूंगा होकर जन्मा था अनंतवार भूख और प्यास से पीडित हुआ था जैसा कोई मार्गभ्रष्ट जीव जंगलमें अकेलाही भ्रमण करता है भैंस यह संसारी जीव मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होकर संareer सहायके बिना भ्रमण करता है. आगम में इस विषय में ऐसा कहा है- यह अज्ञजीव हिँसा दिक पापोंसे कर्मसंचय करके भ्रमण करता है. कभी कभी यह जीव संपूर्ण इंद्रियोंस पूर्ण नहीं होता है अर्थात् नेत्रादिक इंद्रि के अभाव से वह अंधा, बहिरा, गूंगा वगरे अवस्थाको प्राप्त होता है. इस संसार में अशरण, दुःखपीडित और दीन होकर अशुभ कार्य करके भ्रमण करता है. जैसे बहिरा, मूक, अंध, अज्ञ ऐसा प्राणी रनमें भूख और प्यास से utter होकर सदायरहित अशरण दीन होकर एकाकी भ्रमण करता है वैसे यह जीवभी त्रस, स्थावर जीवोंके देह को ग्रहण करता है, कभी छोड़ता है. इस तरह चिरकालसे जन्मवनमें भ्रमण कर रहा है.
상사
एइंदिये पंचविधेसु वि उत्थाणवीरियविहूणो ||
ममदि अनंत कालं दुक्खसहस्साणि पावेंतो ।। १७८९ ॥
आश्वास
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