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मूलाराधना
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पूर्वजन्मकृतकर्मनिर्मित पुत्रमित्रधनबांधवादिकम् ॥ न स्वकीयमखिलं शरीरिणा इति अन्यत्वं ।
विजयोदया--तह्मा तस्मात् । द्विते प्रवर्त्तनात् । मोगा पुरिसस बंधवः पुरुषस्य के ? साधू साधवः अगसुख देह इंद्रियानिद्रिय कलसुखहेतवः । संसारमदीर्णता संसारपानक दुःखसंकुलश्वतारयतः । णीया य णरस्स हाँनि अरी शत्रवो भवंति मनुष्यस्थ बंधवः । पतेन सूत्रेण अशं यतीनां बंधूनां मित्रत्वशत्रुत्वानुप्रक्षणं अन्यत्वानुप्रक्षेति कथ्यते । एवमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मे तदुपदेशकारिणि च यतिजन महानादरो भवति । अभिमत सकलसुखमुपस्थापयतो धर्मस्य विध्वं भवति संपादयत्सु चतुर्गतिघटीयंत्रे दुःखभारे यारोहर नितरामादरो भवति ॥ अण्णत्तं ॥
वस्तुवृत्त्या यतीनां च गंधुत्वेनापि बंधूनां च शत्रुतयापि स्वस्मादन्यत्वं भावयितृव्यमन्यथा विभ्रमावेशादिष्टसिद्धि व्याघातो भवेदित्यन्यत्वानुप्रेक्षा सर्वस्वमुपदेष्टुमाइ
मूळारा - अणेग ऐंद्रियिकमतीद्रियं च । अदीर्णता प्रवेशयंतः
अन्यस्वानुप्रेक्षा ॥
अर्थ --- सत्पुरुष प्राणिओंको हितमार्ग में लगाते हैं इसलिए वे ही सच्चे बांधव हैं. ये सत्पुरुष ही जीवों को इंद्रिय सुख और अतींद्रिय सुखकी प्राप्ति होने में हेतु होते हैं, परंतु अपने जो बंधु हैं वे अनेक दुःखोंसे व्याप्त अपार संसार में डुबोते हैं इसलिए वे मनुष्य के शत्रु हैं. इस गाथासे अपने मित्र जो सत्पुरुष हैं वे बंधु और अपने मित्र संगण वास्तविक शत्रु हैं ऐसा विचार करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है ऐसा कहा गया है. इस प्रकार जो पुरुष विचार करता है उसके मनमें वर्म के विषयमें और उसका उपदेश करनेवाले सत्पुरुषों में महान आदरभाव उत्पन्न होता है. और बंधुओंमें अनादर होता है. क्योंकि वे इष्ट सुख देनेवाले धर्माचरण में बाधा लाते हैं. संसार वर्धक क्रियाओंमें जीवोंको लगाते हैं. चतुर्गतिरूप घटी यंत्र जो कि दुःखका भार है उसपर स्वयं उन्होंने आरोहण किया है. इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त हुआ ।
संसारानुप्रेक्षा कथ्यते प्रबंधन संरण
। १८३८ ।।
सिच्छत्तमोहिदमदी संसारमहाडबी तदोदीदि !! जिवयविप्पणट्टो महावीविप्पणी वा || १७६८ ॥
आश्वास
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