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आश्वासः
मूलाराधना १२७६
निर्धर्मताहेतुमाहमूलारा-पस्संतो रागद्वेषाद्यशुभपरिणामप्रतिबद्धतत्त्वज्ञानतया चारित्रानावरं कुर्वन्त्रित्यर्थः । पार्थस्थः ।। पार्श्वस्थ मुनि धर्मरहित क्यों रहता है ? इस प्रश्नका उत्सर--
अर्थ-पाश्वस्थ मुनि इंद्रिय, कषाय और पचेंद्रियांक विषयोंसे पराभूत होकर चारित्रको तृणके समान समझता है. उसके रागद्वेष और क्रोधादि परिणाम तीव्र होजाते हैं. रागद्वेषादिक अशुभ परिणाम पाश्वस्थ निके तत्वज्ञानका नाश कर डालते हैं. इसलिए यह पुनि अपने मलिन ज्ञानसे चारित्रको तुच्छ समझता है. और ऐसी समझ होनेरे नहीला भ्रष्ट हो जाला है. मेरे काश्विभ्रष्ट मुनिको पाश्वस्थ कहते हैं. जो मनि सन्मागमें प्रवननेवाले मुनिका त्याग करते हैं व पार्श्वस्थ मुनिका आश्रय लकर बस बनते हैं.
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इंदियचोरपरहा कसायलावदभएण बा केई ॥ उम्मग्गेण पलायति साधुसत्थस्स दूरेण ॥ १३०१ ॥ अक्षचौरहताः केचित्कघायच्यालभीतितः ॥
उन्मार्गेण पलायंत साधुसार्थस्य दूरतः ॥ १३४६ ॥ विजयोदया-दियचोरपरद्धा दियचोरकृतोपद्वाः । फसायसाबमभपण वा कई कवायव्यालमृग भयेन या केचित् उम्मगेपण उन्मार्ग पलायति पलायन कुचंति | साधु सस्थस्स चूरोण साधुसार्थस्य दुरात् ॥
कुशीलं गाथासप्लकेन दर्शयतिमूलारा-परद्धा कृतोपद्रषाः । दूरेण दूरात् । निर्लज्मो वुराचारावष्टभात् ।।
अर्थ-कितनेक मुनि इंद्रियचोरोंसे पीड़ित होते हैं और कपाथरूप श्वापदासे ग्रहण किए जाते हैं तब साधुसार्थका त्याग कर उन्मार्गसे पलायन करते हैं।
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तो ते कुसीलपडिसेवणावणे उप्पधेण धावंता ॥ सण्णाणदीसु पडिदा किलेसम्रक्षेण बुढेति ॥ १३०२ ॥