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मूलारावना
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अभिभवितुमशक्यत्वात् । समशुद्धा सम्यगनुवक्ताः । चारित्रमोहोदयस्य स्वकारणस्य मुहुर्मुहुः प्रवर्तनात् । दुक्खावहा य योगस्याप्राप्तौ प्रातस्य चापाये चक्षुरादिमुखेन दुःखस्यानुभवसिद्धत्वात् । क्रोधादिकृतहृदयतापकत्वात् । दुःखकारणास द्वेद्यार्जननिमित्तत्वाद्वा द्वयेऽपि दुःखकराः । भीगा भयंकराः । दुःग्यात्वादेव वा ॥१
अर्थ - ये इंद्रिय और कषाय जीवोंको अनिशय उपद्रव करते हैं. और चंचल है. इनको जीतना अतिशय कठिन है. जबतक चारित्र मोहनीय कर्मका क्षयोपशम नहीं बढा हुआ है तबतक इनको जीतना अशक्य है. जबतक चारित्रमोहरूप कारणका सद्भाव है तबतक इन कषाय और इंद्रियोंका संबंध रहता ही हैं. इंद्रिय और कषाय नित्य हैं अर्थात् बारबार इनका आत्मा से संबंध होता है अतः इनको नित्य कहते हैं. इंद्रिय और काय परिणामका एक स्वरूप नहीं रहता है. कभी क्रोध परिणाम, कभी मानपरिणाम, कभी लोभ परिणाम ऐसा परिवर्तन होता ही रहता है इसलिये इनको चंचल भी कहते हैं. ये इंद्रिय और कपाय जीवोंको दुःख देते हैं. जीवोंको दृष्ट भोगोंका
होते व प्राय होनेसे महान् दुःख उत्पन्न होता है. यह यात अनुभव सिद्ध है. कषाय-- क्रोधादिक हृदयका घात करते हैं. इंद्रिय और रूपायोंके आधीन होकर प्राणी जीवोंका घात करते हैं. traint घात असातावेदनीय कर्मके आसव आते हैं. ये इंद्रिय और कषाय दुःखदायक है इसलिए भयानक हैं.
तरुतेपि पितो वत्थो जह वादि पूदियं गंधं ॥
तो वि इंदियकसायगंधं बदि कोई ॥ १३१७ ॥ लोsपि कषायाक्षं निषेवते ।
मारवं वस्तः प्रतिवानि पित्रन्नपि ॥
३६४ ॥
विजयोश्या-तुष्कतैलमपि पितो पवन बन्यो वस्तः अञ्जनः। जह वादि पूदियं गंध पुतिगंधे यक्षा वानिया था व जहाति । संश्रियमानोऽपि सुरक्षिणाध्येण तथ दिषदों व सभा दीक्षिनोऽपि परित्यक्तासंयोऽपि । दिय सायगंधं वहदि । इंद्रियावदुप्रति इति यावत् ।
दीक्षाचा इंद्रियविजयाश्रमत्वमाह-
मूलारा-मरते तुरुष्कतैलं सेस्हारस सुगंधितैलमित्यन्ये । धभओ छागः । पूवयं गंधे दुर्गंध प्राकनमेव । दिक्खिदो कृतव्रत स्वीकार संस्कारः । इंदियकसायगंधं चक्षुरादिक्रोधादिवासनां ||
आश्वासः
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