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मूलाराचना),
आश्वासा
SHREATRE
वेद य कर्म उदयम आता है और उसका अनिवार्य सामथ्र्य है तब वह अपना फल दकर ही नष्ट होमा एमा धय धारण कर विचार करना यह मनके द्वारा उपसर्ग परीघहों का जय समझना चाहिये.
म थक गया दूं. ये दुःख दुःसह है. मैं आंतशय कटतम अवस्था को प्राप्त हुआ है, मेरे शरीरमें आग लगी है, मैं पीटा जा रहा हूं इत्यादिक दीनवा व्यक्त करनेवाले शब्द मुंहसे न निकालना यह बचनसे जय समझना चाहिय.
क्षुधादिक परीषदोंका अनंत बार अनुभव ले चुका हूं. अनेक बार घोर उपसर्ग भी मेरेको प्राप्त हुए थे. डोरसे रोनेपरमी व उपसभादेक दुःख मेरको क्या छोड देंगे? यह पुरुष धैर्यरहित है, यह दीन है, बारबार रोता है, चिल्लाता है ऐसी लोक मेरी निंदा करेंगे. वे उपसर्गादिक दुःख मेरेको सन्मार्गसे भ्रष्ट करने में असमर्थ है ऐसे उदार वचन कहना यह भी वचनजय समझना चाहिये.
परीषहादिकोंसे दुःख होने परभी मुखमें दीनता न दिखाना, आखों में दीनता न धारण करना, मुख न सूखना, शरिमें निश्चलता रहना, यह शरीरसे जय समझना चाहिये.
इस प्रकार उपसर्ग और परीपहोंको दृढतासे जीत कर मरणसमयमें हे क्षपक! तू रत्नत्रयाराधक हो.
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मंभर सुविहिय जं ते मज्झाम्म चदुम्विहस्स संघस्स ॥ बूढा महापदिण्णा अहयं आराहइस्मामि ॥ १५१७ ।। अहमाराधयिष्यामि प्रतिज्ञा या त्वया कृता ॥
मध्य संघस्य सर्वस्य तां स्मरस्यधुना न किम् ॥ १५७८ ।। विजयोन्या-समर स्मृति निधेहि । सुधिहिद सुचारित्र । फि स्मरामि इति चेत् तं सो प्रतिक्षां कृतवानसि । मजास्मि मध्ये । कस्य ? चदुविधस्स चतुर्विधस्य संघस्य । बूढा धृता । महापविणा महती प्रतिज्ञा । अहर्य महाराघ इस्सामि आराधयिष्यामि इति ॥
मूलारा- ते यत्वया । बूढा कृता ।।
अर्थ--हे निदोषचारित्र धारक क्षपक, तू चार प्रकारके संघमें अर्थात् उनके समक्ष बढी प्रतिज्ञा धारण की है अर्थात मैं रत्नत्रयकी आराधना करूंगा ऐसी महाप्रतिज्ञा धारण की है उसका स्मरण कर.
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