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पलाराधना
आचासः
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मत्स्यमुभौमदृष्टांताभ्यां आहारगृद्धिदोषानिदर्शयितुं गाभायमाह--
मूलारा--अवधिद्वाण सप्तमनरकभूमी अवधिस्थानाख्यं प्रस्ता। पाहारगतिजनितपासक हेलुनिमित्तं यत्र गमने । सालिसिथो शालिसिक्थकमानगात्रत्याकछालिसिषथो नाम क्षुद्रमत्स्यः । तत्कथानकं यथा-स्वयंभूरमणसमुद्रवास्तव्या योजनसहस्रायामा योजनपंचाशन्माप्रपृष्ठविभाः , सार्बयो अनशतद्वोचलाया महामत्स्या आहारलोटुपत्वेन पण्मासान्मुझे प्रसार्य तिष्टंति । ततो मुख पिधायांतः प्रविष्टेतरमत्स्यादीभक्षयित्वा बद्धोमपामानोऽयधिस्थानं ब्रजति । तत्कर्णचासिनस्तत्कर्णमलादाराश्च तद्दष्टांतरालनिर्गच्छतो मत्स्यादीन अवलोक्य इमे अवशानिनो यन्मुख पिधातुं न जानंति यदीदमस्माकं शरीरं भवेनिःसर्तुमकोऽपि न लभेतेति कृवोत्कृष्टरौद्रध्याना: झालिसिक्यका अपि तत्सहवासिनो भवति ।।
मुखरा-चक्कघरो अष्टमः । वंचिदो प्रतारितः। णित्यं सनम ॥
स्वयंभृरमण समुद्र में तिमि तिमिगिलादिक महामत्स्य रहते हैं. उनका शरीर बहुतही बटा रहता है. उनकी शरीरकी लंबाई हजार योजनकी कही है. वे मत्स्य छह मासतक अपना मुंह उघाडकर नींद लेते है. नींद खुलने के बाद आहारमै लुब्ध होकर अपना मुंह बंद करते हैं. तब उनके मुहमें जो मत्स्यादिक प्राणी आत है उनको वे निगल जाते हैं. ये मत्स्य आयुष्य समाप्तिक अनंतर अवधि स्थान नामक नरकमें प्रबंया करते हैं. इन मत्स्यांक कानमें शालिसिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं व उनके कानका मल खा कर जीवन निर्वाह करते हैं. उनका शरीर तंडुलक सीथके प्रमाणका रहता है अतएव उनको शालिमिक्थक ऐसा अन्वर्थक नाम है. वे अपने मनम यदि हमारा शरीर इन महामत्स्योंकि समान बदा होता तो हमारे महसे एक भी पाणी निकल नहीं सकता. हम संपूर्ण प्राणिओंको खा जाते ऐसा विचार सतत करते हैं. इस विचारसे उत्पन हुए पापोंसें वे भी उसी नरकम प्रवेश करते हैं. यही अभिप्राय आगेकी गाथासे आचार्य कहते है
अर्थ-आहारकी अभिलाषासे मत्स्य अवधि स्थान नामक सातये नरकमें ममन करते हैं. इस आहारामिलापसे ही शालिसिक्वक मत्स्य भी उसी नरकमें उत्पष हशा. ( इसकी कथा आराधना कथाकोषमें दखो)
अर्थ-फलोंके रसका आस्वादन करने में आसक्त होकर सुभूम चक्रवर्ती भी अपने परिवार सहित समुद्रमें पडकर मर गया और नरकमें उत्पन्न हुआ.
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