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लाराधना,
आश्वासा
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तदास्य योगिनो योगश्चितैकामनिरोधनं ॥
प्रसंख्यानं समाधिःस्यायानं स्वेष्टफलप्रदम् ॥ अर्थ--धर्मध्यानके चारभेद हैं और शुक्लाध्यानके भी चार मेद हैं. इन दो ध्यानोंसे संसारके क्लेश दर होते हैं अतःसंसार से मययुक्त क्षपक इन दोनों ध्यानोंका हृदय चिंतन करते हैं.
जो वस्तुकी वस्तुताको धारण करता है उसको धर्म कहते हैं अर्थात वस्तुका जो विशिष्ट स्वभाव उसको धर्म कहते हैं. चैतन्यादिक विशिष्ट स्वभाव होनेसेही जीवादिक पदार्थों को वस्तु कहते हैं. विशिष्ट स्वमावसे पदार्थको ' वस्तु यह नाम मात्र हुआ है. स्वरविषाणादिकोंको कोई भी विद्वान् वस्तु नहीं कहते हैं क्योंकि उसमें कोई भी धर्म नहीं है. अर्थात सरावाण चीज ही नहीं है अतः यहाँ धर्म यह शब्द वस्तुके स्वभावका वाचक है. इस धर्मसे अर्थात् वस्तुस्वभावसे ध्यानयुक्त रहता है उसको धHध्यान कहते हैं.
शंका-यदि आप वस्तुस्वभावसे युक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हो तो आतघ्यान भी वस्तुस्वभावसे युक्त होनेसे उसको भी धर्मध्यान कहो, क्यों कि इनमें संयुक्त हुए अनिष्ट वस्तुका वियोग, संयुक्त इष्टवस्तुका अवि योग, रोगपीडा वगैरहका शमन, भाविकालमें इष्ट वस्तुको प्राप्ति इत्यादि वस्तु घमौका आश्रय लेकर ये ध्यान प्रवृत्त होने हैं अतः इनमें घमसे अनपेतत्व-सहितपना है. अतः इनको भी धर्मध्यान कहना चाहिये ?
उत्तर-यहाँ धर्म शब्द विशिष्ट अर्थात विवक्षितधर्मका वाचक है इसलिये आज्ञा, अपाय. विपक, संस्थान इत्यादि विशिष्ट धस जो युक्त है ऐसे आज्ञाविचय, अपायविचय वगैरह ध्यानोको धर्मध्यान कहना चाहिये. आज्ञा, अपाय, विपाक वगरह धर्म धर्मध्यानके ध्येय हैं. अर्थात ज्ञेय ध्येय हैं. इन ज्ञेयांको धर्मध्यान विषय करता है. वस्तुस्वरूपही ध्येय और ज्ञेय बन सकता है. इन वस्तुस्वरूपके साथ अविनाभावी एकाग्ररूप जो ज्ञान उसको धर्मध्यान कहते हैं. इस प्रकार धमध्यान शब्द का अर्थ स्पष्ट करना चाहिये.
उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव इत्यादिकाको धर्म कहते हैं इन धर्मोसे जो ध्यान युक्त है उसको धर्मध्यान कहना चाहिये ऐसा कोई आचार्य कहते है.
शंका-ध्यान तो ध्येयके साथ अविनाभावी है. अर्थात् वह ध्येयके बिना रहताही नहीं. क्षमादिक धर्म ध्येय नहीं है अतः ध्यान इनसे युक्त रहता है ऐसा कहना योग्य नहीं है. यदि क्षमादिक दश धर्म ध्यानके विषय है ऐसा कहोगे तो
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