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मूलाराधना
आश्वासा
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मनका निरोध करनेके अनंतर ध्याताका कर्तव्य बताते हैं,
अर्थ-एक विषयके तरफ मनको निश्चल कर चार प्रकारके वस्तु स्वभावोंका बह क्षपक ध्यान करता है, यहांतक भ्यानका अभ्यंतर परिकर कहा है. अब पाहा परिकरका वर्णन आचार्य करते हैं. पर्वतकी गुहा, कंदा, दर्ग, पक्षका कोटर, नदीका रतीला किनारा, स्मशान, जीर्ण बगीचा, शून्य मकान, ऐसे स्थानों में तथा दुष्ट पशु. गाय, बैल, हरिण वगैरे भद्र प्राणी, पक्षी और मनुष्य जिनसे ध्यानमें विम आसकता है ऐसे प्राणिओसे वर्जित स्थानमें ध्यान करना चाहिये. जहां ध्यान करना हो वह स्थान आगंतुक ऋमिकीटादिओंसे रहित होना चाहिये,
पा, शीन: जोरदार वायु और धूप इत्यादि ध्यानमें विश उत्पम करनेवाली अवस्थास रहित ऐसे स्थानमें ध्यान करना चाहिये. जो स्थान इन्द्रिय और मन में विकार उत्पन्न करेगा उसका त्याग करना चाहिये. पवित्र, अनुकूल, स्पर्शयुक्त ऐसा भूप्रदेश ध्यानयोग्य है, ऐसे प्रदेशमें जाकर पद्मासनसे बैठकर श्वासोच्छास धीरेधीरे करना चाहिये. नाके ऊपर, हृदय में, ललाटपट्टमें अथवा अन्य स्थानमें अपनी मनोवृत्तीको यथाम्यास एकाय करना चाहिये. यह सब ध्यानकी पाष सामग्री है.
धर्मध्यानक आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थानविचय ऐसे चार भेद हैं. प्रथम आझात्रिचयका वर्णन करते हैं-कर्मके मूल कर्म और उत्तर कर्म ऐसे बहुत भेद हैं. इन कर्मोके प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध और प्रदेशबंध ऐसे पर्याय है. इन काँका उदय होना, फल मिलना ऐसे अनेक प्रकार हैं.जीवद्रव्यके मुक्यवस्था वगैरह पर्याय होते हैं. ये सब अतीन्द्रिय है. ज्ञानावरणकर्मका विशिष्ट क्षयोपशम नहीं होनेस मंद बुद्धिके द्वारा इन पदाथोंका निश्रय नहीं होता है, यद्यपि उपर्युक्त पदार्थोंका स्वरूप हमसे नहीं जाना जाता है. सर्वज्ञका ज्ञान प्रमाण है और उपर्युक्त पदार्थ उसने कहे हुए आगमके विषय है, जैसा जिनेश्वरने इन वस्तुओंका स्वरूप कहा हैं वह सब सत्य ही है असत्य नहीं है ऐसा निश्चय करना यह निश्चय सम्यग्दर्शनका स्वभाव होनेसे मुक्तिका कारण
है. इस प्रकार प्रभूके आज्ञाका विचार करना, निश्चय करना उसको आज्ञा विचय कहते हैं. यह आशाविषय नामक | धर्मध्यान है.
अन्य आचार्य इसी आज्ञाविचय धर्मध्यानका स्वरूप इसप्रकार से भी कहते हैंस्वयं तो पदार्थीका स्वरूप जानता है, सिद्धान्त में कहे हुए जीवादि तत्वोंका ज्ञान करा देने वाली सत्ययुक्तीका
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