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धूलाराधना
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दयावापृथिव्योर्वरविषयरति वीतभीविषादां ॥
कृत्वा लोकत्रयां सुरनरपतिभिः प्राप्य पूजां विशिष्टाम् || मृत्युल्याधिप्रसूविप्रियविगम जरारोगशोकप्रहीणे ॥
मोक्षे नित्योरुसौख्ये पिति निरुपमे यः सो नोडव्यात्सुवर्सः ॥
बांधवादयोत्रामुत्र परमार्थेनोपकारक सहाया न स्युरिति तेषु न मनागप्यादरः कार्यः । धर्मे तु तद्विलक्षणत्वादभीक्षणमादरवता भवितव्यमित्युपदेशेनासहायवत्प्रकरणेऽपि धर्मस्योपकारक सहायतोतिरूपयोगिनी । नतु चारित्रप्रधानस्य धर्मस्य प्रेत्यलहायत्वाभावात्सहायतानुपपन्नेति न शक्यं धर्मानुबन्धितदनुरागजन्यसुकृतसम्भारस्य निःश्रेयसाचसाना भ्युदयसाधकतमस्योपकारक सश्य भावसम्भवाविरोधात् ॥
अर्थ — सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्म जो इस जीवने धारण किया था वही पर लोक में इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है. यह रत्नत्रयात्मक धर्म दुर्गतिके तरफ जानेवा ले जीवको धारण करता है अर्थात् शुभ इंद्रादिपदोंमें स्थापन करता है. इसलिये इस रत्नत्रयको धर्म यह अन्वर्थ नाम प्राप्त हुआ हैं. यह जीव इस जीवको परलोकमें कल्याण करनेवाला मित्र है क्योंकि यह अभ्युदयसुख और मोक्षसुखको देनेवाला है.
आम इस धर्म के विषय में ऐसा कहा है
भय, शोक और खिन्नताको दूर कर यह धर्म जीवको इस भूतलके और स्वर्गक सौख्याको अर्पण करता है. लोकत्रयके ऐश्वर्य देकर यह धर्म देवेंद्र और राजेंद्रों के द्वारा जीवको पूजित करता है. यह जीव धर्म के प्रसादसे मृत्यु, रोग. इष्ट पदार्थोंका वियोग, वृद्धावस्था, शोक इत्यादिक आपत्तियोंसे रहित होता है. और नित्य, उपमारहित और महान् सौख्य जिसमें हैं ऐसे मोक्षकी भी प्राप्ति कर लेता है. ऐसा अपूर्व हितकारक वर्म अर्थात् रत्नत्रयात्मक धर्म हमारा नित्य रक्षण करे.
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शङ्का --- असहायत्व भावनाके प्रकरण में सहायका निरूपण करना कैसा योग्य दीखता है ?
उत्तर- इस जंतुने जिन बांधत्रोंको सहायक समझकर रक्खा है ये वास्तवतथा सहायक नहीं है इसलिये उनमें आदर नहीं करना चाहिये और सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्रात्मक धर्म में आदर करना चाहिये क्योंकि यह
आश्वासः
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