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मूलाराधना
आत्रामा
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दुःख दूर करने में असमर्थ जन दूसरों का दुःख दूर करने में कैसा समर्थ होगा शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक दुःखों से पीडित होकर वह अपने को सुखी समझ रहा है अन एवं स्वयं अज्ञानी है चारो गतिओं में नाना प्रकारके असाता वेदनीय कर्म के उदयस और ट्रच्ध, क्षेत्र, काल, भाव रूप सहकारी कारणों की सहाय्यतासे अनेक आपनियां मेरे उपर आई हुई थी और भविष्यकालमें आवंगी, मेरे को दुःखित करेंगी इसको वह स्वयं नहीं जानता है, उपादान कारणों को सहकारी कारणाकी मदत होनेपर अवश्य कार्य होता है. जो जिसक होनेपरमी उत्पन्न नहीं होता है वह उसका कैसा कार्य माना जायगा! जैसे मानका भीज होने पर भी आम्रवृक्षका अंकुर उत्पन्न नहीं होता है क्यों कि वह यवनीजका कार्य नहीं है वैसा यदि असता वेदनीय कर्म का उदय हानेर भसुख, शोक, सामाक्षिक कार्य नहीं होंगे तो असता वेदनीय कर्म उदयका कारण नहीं है ऐसा मानना पड़ेगा. परंतु दुःखादिक उत्तम होते है. इससे असावा वेदनीय कर्म उनका उपादान कारण है ऐसा सिद्ध होता है.
इसलिए आत्मप्रदेशोंमें ठहरा हुआ, दुःखका कारणभूत असातावदनाय कर्म किस उपायसे नष्ट होगा इसका ज्ञान इस जीवको नहीं है. इसलिए इसको अज्ञानी कहा है. यह जीव अन्यके दुखों को अपने ही समझकर शोकको प्राप्त होता है और उसका नाश करनेका प्रयत्न सतत करता है. ऐसी प्रवृत्ति करनेवाला यह अज्ञानी पर दुःख दूर करने के लिए प्रवृत्त होता है. परंतु स्वदुःख र करनेका प्रयत्न नहीं करता है जिससे संसारमें पार बार दुःख भोगता हुआ भ्रमण करता है. परंतु उससे दूसरा पुरुष दुःखाँसे रहित नहीं किया जा सकता है. जिसने जो फर्म उपार्जित किए हैं वे उसको फल देते ही हैं शोक करनेपर क्या फल देने वाले कर्म रुक सकते हैं ? अर्थात् शोक करने से स्वजनोंको दुःख देनेवाला कर्म कोई दूर नहीं कर सकते हैं. आगममें इस विषय में ऐसा
प्रीतिपूर्वक मन वचन और कायके द्वारा जो प्राणिओने कर्मोपार्जन किया है उसके फलको सर्व देव एक्रडे होकर भी दूर नहीं कर सकते हैं. इसलिये दूसरोंका दुःख देखकर शोक करना व्यर्थ है. अपने दुःखसे परकीय दुःख भिन्न है. ऐसा विचार करनेवाला जवि दुसरोंका दुःख दूर करना अशक्य है ऐसा समझकर शोक नहीं करता है. और अपने दुःखाको दूर करनेका प्रयत्न करता है ऐसा अभिप्राय आचार्य ने व्यक्त किया है.
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