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मूलाराधना
आश्वासा
जीवपरिणाम हैं और उपकारक अर्थात् सहायक हैं. इस धर्ममें आचार्य आदर उत्पन्न करते हैं. धर्म ही सबसे उत्कृष्ट सहायक है, जाति, धन वगेरह पदार्थोंसें ऐसी उस्कृष्ट सहायता कमीभी नहीं मिलती है और न मिलगी. इसलिये प्रकृत असहायताकाही यह वर्णन हुआ.
सम्यक्त्वादिक शुभपरिणाम उत्तमगति, जाति, गोत्र. गंधात, संहनन, आयुष्य, सातावेदनीयादि शुभकर्म इत्यादिक उत्तम सामग्राको देकर नष्ट हो जाते हैं. इन परिणामोंसे देवपना, मनुष्यपना, पंचेंद्रियपूर्णता, पर्याप्तक, अवस्था, कुलीनपणा, शुभ और नीरोगशरीर. दोघजीनित्व और सुखारस्था प्राप्त होती हैं क्योंकि इन परिणामोंसे पुपयका उदय होता है. इन परिणामांसे दीक्षा लेने के लिये आत्मा तयार होता है, और निरतिचार रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है, इमलिये धर्मसे उपकाररूप सहायता प्राप्त होती है.
शंका -- परित्र ज्ञान पूर्वक होता है परंतु गाथाम सम्मनधरणसुदममा एमा उलटा क्यों कहा है अर्थात् चारित्रपूर्वक शान होना है श्य- उस ?...
उत्तर इस उल्लेख का अभिमाय ऐसा है—गम्यग्ज्ञान होनेपर भी असंयत मम्यग्दृष्टिको चारित्रका अभाव रहता इ इसलिथे चाम्बिकं विना महान् संघर और निर्जराभी मुख्यगुण नहीं माने जात है. इस लिये पुख्यनाका अभिप्राय लकर चारित्रको प्रधानता दी गई है. आर इस विषयमें एसी युक्ति है--सम्यग्ज्ञान उपाय है और शारित उपर है. परार्थ की दृष्टिम सम्प्रज्ञान प्रधान है अर्थात कारण की दृष्टिय ज्ञान प्रधान ई परंतु चारित्र माप्य है इस प्टिसे मुख्य है..
'जो पुण धम्मो जीवण कदा' इस वाक्यम धर्म सर्वथा नित्य है इस कल्पना का परिहार हुआ. क्योंकि धर्माचरणसे प्राणिऑको जो विविध सुखादि फलों का अनुभव आजाता है इसलिए धमका मचंदा एक स्त्ररूप नहीं है. अर्थात रत्नत्रय रूप परिणाम जिनको धर्म संज्ञा आचार्योने दी है उनमें तरतमता हानस उनसे प्राप्त हुए सुखादि फलामें भी तरतमता अवश्य अनुभव में आती है. सुखके साधक स्त्री, वस्त्र, गन्ध, पुष्पमालादिक पदाधों में विविधता देखी जाती है इससे उसका कार्य जो सुख वह भी अनेक रूपका अनुभवमें आता है.
धर्म नित्य मानने पर भी ऐसी विचित्रता हो सकेगी ऐसा कहना योग्य नहीं है. अतिशय सुखके साधक अथवा असाधन ये स्त्री गंधादिक पदार्थ होता है उसके लिए धर्म कारण है या नहीं. एस दो विकल्प यहां होते हैं.
MOHTAS
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