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मूलाराधना १५७२
दुःखानुभूति निदर्शनेन मरणे सहायामात्र माचयति---
मुलारा--प्रध दुःखानुभव नवम् । ण विदिज्जगो न द्वितीय: । दुःखयन्मरणं विभज्य गृहीत्वा सहायो न कश्विवतीत्यर्थः । भोगे अशनवसनादीन् ॥
जैसे अपने किये हुए कर्मका दुःखरूपी फल यह जवि स्वयं ही भोगता है वैसे
अर्थ - इस प्राणीका आयुष्य पूर्ण होनेपर उसको अकेलेको ही मरण का स्वीकार करना पडता है. अर्थात् मक विभाग लेकर उसकी कोई साहायक नहीं होता है. अन्यथा एकही मरता है इस वचनकी घटना ही अयुक्त दीखेगी. क्योंकि बहुत जन एक समय में मरेंगे परन्तु ऐसा नहीं होता है अतः 'तह मरह एकओ चैव यह वचन युक्तियुक्त है. अन्न, वस्त्र, तांबुल, धन इनका उपभोग लेनेके लिए चांधव सहाय्य करते हैं परन्तु कर्मफल का अनुभव अकेले को ही लेना पडता है. अन्य बांधव उनको सहायक नहीं होते हैं.
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प्रकारांतरेणेत्यभावनामाच
या अत्या देहादिया य संगा ण करस इह होति ॥
पग्लोग अमेत्ता जदि विदइति ते सुरु || १७५० ॥ देहार्थांधवाः सार्धं न केनापि भवांतरम् ॥
बलमा अपि गच्छन्ति कुर्वन्तो ऽपि महादरम् || १८१६ ।। स्वकीया देहिनो sea देहार्थस्वजनादयः ॥
स्वीकृताः संभ्रमेणापि न कदाचिद्भवान्तरे ।। १८१७ ॥
विजयोदया- गीगा अस्था बंधवो धनं शरीरादिकाश्च परिग्रहाः कस्यचिदपि संबंधिनो न यांति परलोकं प्रति प्रस्थितं । यद्यपि सुद्ध काम्यते परिषदाः । गृहीत्वा तान्यवि नामास्य गंतुमुत्कंठा तथापि ते नानुगच्छत्येक एच यातीत्ये
कत्व भावना ॥
भूपरिग्रहाः परलोके सहगसारः पृष्ठतारस्तु भविष्यन्ति इति व्यामोहव्यपोहनार्थमाह----
आश्वासः
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