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मूलाराधना
आचार
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अर्थ-सभ्यग्दर्शन, ज्ञान,चारित्र और तप ये चार आत्मगुण ही आत्माके शरण-रक्षक है. जबिके कोका ये ही नाश करते हैं. असतावेदनीयादि कर्मके उदय होनेपर भी उपर्युक्त चार पदार्थ ही आत्माका रक्षण करते हैं, अशरणानुप्रेक्षा समाप्त एकत्यानुप्रेक्षा उत्तरेण प्रबंधेनोच्यते
पावं करेदि जीवो बंधवहेदु सरीरहेदं च ॥ णिरयादिसु तस्स फलं एको सो चेव वेदेदि ॥ १७४७ ।।
मातिपातक जन्तुर्देहयांधवहेतवे ।।
श्वभ्रादिषु पुनःखमेकाकी सहते चिरम् ।। १८१३ । विजयोन्या-पाप करोति जीवो बांधवनिमितं शरीरनिमिस च । बांधवशरीरपोपणाय सतस्य कर्मणः फलं नरकादिष्वेक पवानुभवति । नरकादिगतिषु प्राप्तं दुःखमपश्यंतस्तत्रासंतो वांधवाः किं कुर्वतीति आशंकां निरस्थतिसन्निहिताः पश्यंतोप्याकिंचित्करा इति कथनेन ।
धर्यध्यानध्येयतया भावयितुमेकत्वं गाथासप्तकेन वर्णयति-- मूलारा-बंधवेत्यादि बंधूना स्वदेवस्य च पोषणार्थ । एक्कओ चेव एकक एच । असहाय एवेत्यर्थः । एकत्वानुप्रेक्षाका सविस्तर वर्णन.
अर्थ- अपने शरीरका पोषण करने के लिये तथा बांधवों के पोषणार्थ यह जीव पाप करता है. किये हुए कर्मका फलभी इस अकेले जीवको ही भोगना पड़ता है. नरकादिगतिके जो दुःख इस जीवको भोगने पड़ते हैं. बंधुओ को उनषा प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता है अतएव वे उसका दुःख दूर करने में असमर्थ होते हैं ऐसा कहना भी योग्य नहीं है. क्यों कि जब इस प्राणी को इस लोकमें रोगादिसे दुःख होता था तब भी वे केवल देखकर भी दूर करने में असमर्थ थे वो परलोकका दुःख उनसे दूर होगा ऐसी आशा करना कैसा योग्य होगा?
रोगादिवेदणाओ वेदयमाणस्स णिययकम्मफलं ॥ पेच्छंता वि समक्खं किंचिवि ण करति से णियया ॥ १७१८ ।।