________________
मूलाराधना
आश्वास
HEIR
इंदियसामग्गी चि अणिचा संझाव होइ जीवाणं ॥ मज्झण्डंबणराणं जोव्वणमणवादं लोए । १७२१ ।।
जीवानामक्षसामग्री शंपेवास्ति चला चलम् ।।
विनचरमशंपरणां मध्याह इव यौवनम् ।। १७८८ ॥ विजयोदया-रदियसामग्गीचि इंद्रियाणां सामान्यपि। मणिच्चा अनित्या । अंधता बधिरताच दृश्यत पवामझाई व मध्यान्ह यत्, पराणं जोब्यणमणदि लोगे नराणां यौवनमनवस्थितं लोफे यौवनोऽहमिति अनः लापते, यौवनदर्गविकागदेव बुध्यमानोपि ध न प्रयतते तदनित्यं मध्यान्हपत् ॥ क्षिपतरं व्यतिवर्तिनि यौवन को यौषनरुतात्तीर्णमदर मारच मनस्विनाम् ॥
मूलारा-अणवाहिएं क्षिप्रसरगत्यरं ॥
अर्थ-इंद्रियोंकी सामग्री भी इस जीवको अपूर्ण रहती है. कोई जीव अंधा रहता है तो कोई जब बहरा होता है. अर्थात् संध्याकाल के समान यह सामग्री नित्य है. मनुष्योंका तारुण्य अस्थिर है परंतु मनुष्य मैं तरुण ई ऐमी स्वयं प्रशंसा करता है. तारुण्यके अभिमानमें आकर धर्ममें तत्पर नहीं होता है. परंतु तारुण्य चिरकालतक नहीं रहता है. वह भी मध्यान्ह कालके समान जली नष्ट होता है. ऐसे जल्दी नष्ट होनेवाले तारुण्यके विषय में गर्व करना क्या बुद्धिमानोंको योग्य है? कभी भी नहीं.
चंदो हीणो व पुणो विद्वदि एदि य उदू अदीदो वि ॥ णदु जोवणं णियत्तइ नदीजलमदछिदं चेव ॥ १७२२ ॥ चंद्रमा वर्द्धने क्षीण ऋतुरेति पुनर्गतः ॥
नदीजलमिवातीतं भूयो नायाति यौवनम् ।। १७८९ ।। विजयोदया- वदो हीणोच पुणो वदि नित्यगडुमुखकुट्टरप्रवेशाद्धानिमुपगतोऽपि निशानाधः कृष्णपक्षे हीयन ॥ दीनो भवति । पुणो वदि पुनः शुक्लपक्षे पाते । प्रतिदिनोपनीयमानकालः। पदिय उद् अदीदोवि हिमशिशिर वसंनाइयाःतीता अपि ऋतवः पुनरायांति न तु जोयणं णियत्तेदि नेव बीवन निवर्ततेतिकांतम् । तस्मिन्नेव भवे नदीजल मदछिन चेव नदीजलमतिकांतमिव न पुनरति ॥ तनादि यौवनमित्यनेनानित्यततातिशयो यौवनस्य दर्शितः ॥
१५.२.