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मूलाराधना
आवासः
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संजो नश्यति जीवानां निलिंपधनुषामिव ॥
उत्क्लेशनम्बरी बुद्धिर्दृष्टनष्टा मजायते ॥ १७९२ ॥ विजयोदया-तेजोषि इंदणुतजसपिणहो शरीरस्य तेजोपि पौलोमीप्रियत्तमचापस्य तेज इय गर्जज्जन नयनचेतःप्रमोदादायि क्षणेन भयमपवजति ॥ विपणा दृष्टप्रणा बुद्धिः सकलवस्तुयाथाम्याकुटमासानतमम्पटल पाटनपटीयसी, विचित्रदुःखप्राइकबाकीर्णकुगतिविशालनिरगामधेशमियारणोचता, चारित्रनिधिप्रकटनक्षमादीपचतिः, सकलसंपदाकर्षणविधा शिवगतिनायिकासंफली पर्वभूता बुतिरप्युक्षाशु नामुपयाति॥
मूलारा-तेओ देवप्रभा । बुद्धि यथार्थप्रतिपत्तिा।
अर्थ-मनुष्य के शरीकी कांति इंद्रधनुष्यके समान क्षणपर्यंत नेत्रोंको लुभाती है परंतु क्षणके अनंतर नष्ट होती है. संपूर्ण पदार्थ का यथार्थ स्वरूप दिखानेवाली, अज्ञानांधकारके समुइको नष्ट करनेवाली, अनेकदुःखरूपी मगरोंसे भरी हुई कुगतिरूप विशाल नदीमें जीवके प्रवेशको रोकनेवाली, चारित्ररूपी निधिको प्रकट करने को दीप के समान संपूर्ण संपत्तिको उत्पन्न करनेवाली, मंत्रविद्याके समान, मुक्ति लक्ष्मी के दतिक समान ऐसी बुद्धि भी व्यभिचारिणी स्त्रीके समान मनुष्यसे विदा लेती है.
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रजा
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अदिवडइ बलं खिप्पं स्वं धूलीकदंबरं छाए ॥ वीचीव अद्धवं बीरियषि लोगम्मि जीवाणं ।। १७२६ ॥ बलं पलागते रूपमिव रथ्यागतं रजः ॥
जलानामिव कल्लोलो वीर्य नश्वरमंगिनाम् ॥ १७५३ ॥ चिजयोदया-अतिवडर बलं विक्षिप्रमतिपतति बलं, रुवं धृती कर्दवर छाप रथ्यायां पशुचितरूपमिव । वीचीच चण्डप्रभंजनाभिघातोत्थापिततरलतरंगमालेच, अदुवं अध्वं । पीरियं बीर्थमपि । जीयानां शरीरस्य दृढता घलवीर्यमात्मपरिणाम
मूलारा-अदिपहदि नश्यति । धूलीकदन रवायां पासुरचित रूपमिव । वीची लहरी । अबुवं अभुवं । लोगम्मि लोके प्रसिद्ध ।
अर्थ-रास्तेमें वायुसे धूली ऊठकर उसकी बर्तुलाकृति उत्पन्न होती है. परंतु वह शीघ्र ही नष्ट होती है वैसे मनुष्यका बलभी जल्दी मष्ट होता है. चढे मल्लभी क्षयरोगसे ग्रस्त होते हैं. मनुष्योंका पराक्रम भी प्रचंड हवाके
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SEARRIAGAR