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मूलाराधना
आश्वासः
१५५४
अवरहरुक्खछाही व अद्विदं वदे जरा लोगे ॥ रूवं पिणासइ लहुँ जलेव लिहिदल्लयं रूपं ॥ १७२४ ॥ पौर्वाह्निकी यथा छाया हीयते सुकुमारता॥
पराहिकी यथा छाया सर्वदा वर्धते जरा ।। १७९१ ॥ विजयोदया-अबरण्डसक्वकाहीष अपराण्यश्नध्छायेव । अद्विदं बढ़दे अस्तित्वं बर्दते ॥ कियाधिशेषणन्या अपुंसकता। जरा लोगे लोके । सौप्यपल्लवनवानलशिस्वा. सौभाग्यप्रसूनकरकावृष्टिः, युरतिहरिणालीव्याधीमानलोच. नपांशुवृष्टिस्तपस्तामरसघनस्य हिमानी,दीनताया जननी, परिभवस्य धाची, मृतेर्दूती, मीते प्रियसखी या जरा सा बदेते। रूबंपि जासदि लई रूपमपि विलासिनीकटाक्षक्षणशरशततीरायमाण, चेतोवलक्षसुक्ष्मघसनरंजने कौसभरसाय. मान, प्रीतिलतिकाया मूलं, सौभाम्यतरुफलं, कूलं पूज्यताया ययं तलघु विनश्यति ॥ किमिय जलेय लिहिंदलग रूपं जले लिखितरूपमिव ॥
मूलारा-अद्विदं बढदे अथांत वर्धते । लिहिदेलयं लिखितं ।।।
अर्थ-दिवसके उत्तरार्धमें पक्षकी छाया जैसी चढने लगती है जरा वृद्धावस्था भी प्राप्त होनेपर प्रति दिन बढ़ने लगती है. यह वृद्धावस्था सौंदर्य रूप कोमल कोपलपर अग्नीकी ज्वालाके समान आक्रमण कर उसको जलाती है. सौभाग्यरूपी पुष्पपर ओले की सृष्टि के समान है. तारुण्यरूपी हरिणपर यह व्याघी के समान टूट पडती है ज्ञानरूपी नेत्रपर यह धुलीवृष्टिके समान है. तपरूपी कमलवनके लिये यह वृद्धावस्था बर्फके समान है.अथात् वृद्धपना तुपको नष्ट करता है. यह वृद्धावस्था दीनताकी माता है. अपमानकी धाय है,मृत्युकी दती है. भय की प्रिय सहेली है. इस बृद्धावस्थाकी प्राप्ति होनेपर रूपका नाश होता है. यह रूप गुणसुंदर खियोंके कटाच बाणोंका आश्रयस्थान है. मनरूपी स्वच्छ वस्त्र को रंगाने के लिये कुसुंबी रंगके समान है. प्रीतिलताका यह मूल है. सौभाग्य वृक्षका यह फल है,पूज्यताका यह किनारा है. ऐसा भी उत्तम रूप पानी में लिखे हुए चित्रके समान शीध्र नष्ट होता है.
तेओ वि इंदघणुतेजसपिणहो होइ सयजीवाणं ॥ दिट्ठपणठ्ठा बुद्धी बिहोइ मुकाव जीवाणं ॥ १७२५ ॥