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मूलाराधना
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भोगार्थमाणां प्राणिनो जगदनित्यत्वाज्ञानं साधर्यमनुशोचति
मूलारा दातावत् । वाक्याकारे । सता प्राणिनः । कम्मपसत्ता कृष्यादिष्वासतां । सारा शरत्प्रभवः । समीचिदा आच्छादिता अपि । उक्तं च
कर्माः कथं सत्याशिरन्मेघनमं जगत | सर्वमेतन्न जाति मृत्युभीतियुता अपि ॥
अपिच --- कथमिव दुरितज्वरो भोगासक्ताः सरधनप्रतिमं ॥ जानंति जगदनित्यं न जन्मिनो मरणभीतिभृतः ॥
अनित्यतानुप्रेक्षा ॥
अर्थ-ये सर्व प्राणी मृत्युभयसे युक्त होकर भी शरत्कालके मेघके समान इस विनश्वर जगत् को क्यों नहीं जानते हैं यह बडा आचर्य है. ये सर्व प्राणी अपने किये पापों के आधीन होकर अनेक योनियोंमें दुःख पाते रहते हैं. इसलिये ' सीदतीति सत्वाः ' अर्थात् सत्य ऐसे अन्वर्धक नामको धारण करते हैं. शरदृतुमें उत्पन्न हुए अनेक रंगोंको धारण करनेवाले, अनेक आकृति युक्त परंतु नश्वर ऐसे मेघसमूहके समान यह जगत् नश्वर हैं. प्राणिओं को मरण विषके समान अप्रिय है. शोकरूपी वज्रपातको उत्पन्न करनेवाला मानो मेघ पटल ही है, दुःखरूप लोहको खीचने के लिये मरण लोहचुंबके समान है. बंधुओके हृदयरूपी पत्थरको द्रवयुक्त करनेमें औषधी के समान है. यह मरण दीर्घआपत्तिओं का घर है. इस प्रकार मरणभयसे युक्त सत्पुरुष संपूर्ण विषय अनित्य धर्मसे युक्त है ऐसा समझकर उन वस्तुओंको धर्मध्यानका विषय करते हैं.
अशरणताकथनायो सरप्रबंधः । कर्माण्यात्म परिणामोपनीत चिरकालस्थितीनि समिति क्षेत्रकालभावाक्य सहकारिकारणानि यदा फलमशुभं प्रयच्छति तदा तानि न निवारयितुं कश्चित्समर्थोऽस्ति तेनाशरणोऽस्म्यहमिति चिंता प्रबंधः कार्य हायटे
णासदि मदी उदिष्णे कम्मेण य तरस दीसदि उबाओ ॥ अमपि विसं सच्छं तणं पि णीयं वि हुति अरी || १७२९ ॥
आश्वास
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