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लागधना
आश्चात
दुगचदुअणेयपाया परिसप्रदी य जंति भूमीओ ॥ मच्छा जलम्मि पक्खी भमि कम्मं तु सव्वत्थ ॥ १७३७ । द्विचतुर्थहुपादा येत गच्छात नहानलं ॥ .
जले मीनाः बगा योनि कर्म सर्वत्र सर्वदा ॥ १८०४ ।। विजयोध्या-दुगवअणेगपादा विचतुश्चरणादिकाः । परिसादी 4 जति भुमीमो परिसादयश्च यांति भूमावेव । मत्स्या जले पक्षिणो नभसि यांतिः । कर्म सर्वत्रगं ।
मुलारा-परिसप्पत्ता अपादा उरगादवः । कम्मै तु मबत्य स्वकृतकर्मविपाकेन जीनाः कचिदपि न मुच्यते इत्यर्थः ।
अर्थ-दो पांवके जीव, प्यार पांधके जीय, अनेक पांचक जीव और सादिक जीव जमीन पर निवास करते हैं. मत्स्य पानी में रहते हैं. पक्षी आकाशमें रहते हैं. परंतु कर्म सर्वत्र रहता है.
रविचंदवावेउध्वियाणमगमा वि अस्थि हु पदेसा ॥ ण पुणो अस्थि पएसो आगमो. कम्मल होइ इधं ॥ १७ ॥ अगम्या विषयाः शिरविचंद्रालिलामरैः ॥
प्रवेशी वियो कोफिनागम्यः कर्मणा पुनः ॥ १८०४॥ विजयोदया-रविचंधावयेडठियगाणं सूर्यण, बग्रेण. पातेन, देवेश्चाभ्यासंति प्रदेशाः कर्मणामगम्योऽत्र प्रवेशोऽस्ति लोके ।।
कुच इत्याइ.मूलारा-देउविमाण चैक्रियिकाओं । देवविद्याधरादीनां । अगमा अगम्याः ।
अर्थ-सर्य, चंद्र, वायु और देव भी जहां प्रवेश नहीं कर सकेंगे ऐसे भी बहुतसे प्रदेश हैं. परंतु कर्मके लिए अगम्य प्रदेश कोई भी नहीं है.