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मूलाराधना
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मूलारा - होणो नित्य राहुमुखकुहरप्रशाद्धानि गतः । यदि पुनरायाति च । उ हेमंतादि ऋतुक्षत्रं वा । पियट्टदि पुनरायाति । अदिच्छिदं अतिक्रांतं । चेन यथा ।
अर्थ - हमेशा नित्य राहु के मुखमें प्रवेश करनेसे हानिको प्राप्त होता हुआ भी अर्थात् कृष्णपक्ष में प्रतिदिन कम कम होता हुआ भी चंद्र शुक्ल पक्षमें बढने लगता है. अर्थात् चंद्रकी एकांत रूपसे हानि ही नहीं है. उसकी बुद्धि भी हैं. हिम, शिशिर वसंतादिक ऋतु व्यतीत होनेपर भी पुनः उनका आगम होता है परंतु तारुण्य बीवनेगर लौटा नहीं है होती नहीं है. जैसे नदीका गया हुआ पानी फिर ही नहीं आता है वैसा यह तारुण्य पुनः आता नहीं है. इससे तारुण्य में अनित्यताका अतिशय हैं यह सिद्ध होता है.
धावदि गिरिणदिसोदंव आउगं सव्वजीवलोगम्मि ||
सुकुमालदा वि हीयदि लोगे पुत्र हछाही व || १७२३ ॥ धावते देहिनामायुरापगानामिथोदकम् ॥
क्षिप्रं पलायते रूपं जलरूपमिवांगिनाम् ॥ १७९० ॥
विजयोदया - धावदि गिरिणदिसोदंव धावति गिरिनदीप्रवाह इव किं ? आउगं आयुः । सब्दजीवलोगंहि सर्वस्मिन् जीवलोके । सुकुमालदा वि द्वीयदि सुकुमारतापि दीयते । पुन्नण्ड छाही व पूर्वाकृछाया हव । यथा यथोि तामरसबंधुस्तथा तथोपसंहरति छायां शरीरादीनां ॥
मूलारा—गुब्बष्णछाहीच पूर्वाहृछाया यथा । सूर्यो हि यथा यथोदेति तथा तथोपसंहरति शरीरादीनां छा अर्थ - पर्वतपरसे बढेवेग से बहने वाली नदीके प्रवाहके समान प्राणियोंका आयुष्यप्रवाह शीघ्र बहकर समाप्त होता है, जैसे जैसे कमलबंधु सूर्य ऊपर आता है वैसे २ शरीरादिकों की छाया कम होती है. इस सर्व जीबाँके जगतमें प्राणिओकी कोमलता भी पूर्वाह्न की छाया के समान कम कम होती जाती है. अर्थात् प्राणिओंका सौदर्य वृद्धावस्था आनेपर नए होता है.
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आश्वासः
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