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मूलाराधना
आवास
और यदि एकही पदार्थम स्थिर
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पूछना चाहिये-पदि चिंता अनेक अर्थोंका-पदार्थोका आश्रय लेती है तो वह एक वस्तु में ही कैसी स्थिर होगी
और यदि एकही पदार्थमें स्थिर होगी नो अनेक पदार्थोंका वह अवलंबन क्यों लेगी. इस वास्ते उसके निरोध का वर्णन करना असंगतसा दीखता है. चिंतानिरोधका यहां ऐमा विवेचन करना चाहिये
चिंता शब्दसे चैतन्य अर्थ समझ लेना. यह चैतन्य अन्य अन्य पदार्थको जानता हुवा ज्ञानपर्यायसे परिणत होता है. ऐसे परिस्पंदयुक्त चिंताका निरोध करना अर्थात एकही विषयमें उसकी प्रवृत्ति होनाही चिंता निरोध समझना चाहिये. जो एक पदार्थमेही निरुद्ध हुआ है वह वही प्रवृत्त हुआ है ऐसा कहा जाता है. उत्तम संहननवालाको ध्यान होता है ऐसा सूत्रप्रयोग है इससे उत्तमसंहनननरहित जीवों में आर्त रौद्रध्यानकी प्रवृत्ति नहीं होगी. इससे इन ध्यान के आश्रयसे जो नरकादि गतिओंकी प्राप्तिका वर्णन आचायने किया है वह अनुभवसे विरुद्ध होता है. इस कालमें भी इन ध्यानाकर सद्भाव है अतः अन्धशाखोसे भी उपर्युक्त कथन विरुद्ध पड़ता है. यह कथन अन्यसूत्रोसेभी विरुद्ध होता है. 'तदवितरतदेशविरतपमत्तसंयतानाम् ' हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ' इन सूत्रों में केवल गुणस्थानोंका आश्रय लेकर ही आर्तरौद्रध्यानके स्वामीओंका वर्णन किया है. इससे भी ध्यान अनुत्तमसंहननवालीको भी होता है यह सिद्ध होता है.
उपर्युक्त आक्षेपका निराकरण
निर्जराके कारण जो ध्यान है उनका यहां वर्णन है. इसवास्ते मुक्तीके लिये साक्षात्कारणभूत ध्यानका वर्णन करनेके लिये आचार्यने ' सूत्र में उचमसंहननस्य' ऐसा शब्द ग्रहण किया है.
शंका-यदि ऐसा है तो आतरौद्रधHशुक्लानि ऐसा आगेका सूत्र है वह असंगत है क्योंकि आतध्यान और रौद्रयान निर्जराके कारण नहीं हैं.
उत्तर- उत्तमसंहननस्यैकायचिन्तानिरोधो ध्यानं' यह सूत्र मुख्य ध्यान जो कि मुक्तिका अंग है उसको उद्देश करके प्रबृत्त हुआ है. और उस के आगेका 'आत्तरौद्रधHशुक्लानि' यह सत्र एकाग्रचिताको सामान्यसे उद्देशकरके लिखा है, यह सूत्र अनभिमत अनिष्टध्यानका वर्णन करता है. प्रस्तुत ध्यान अनभिमत ध्यानसे-आर्त और रॉद्रध्यानसे अलग है और इसका स्वरूप बिलकुल आरोद्र ध्यानसे उलटा है यह दिखाने के लिये यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिये प्रासंगिक आर्त रौद्रध्यानका मुख्यध्यानके आगे उल्लेख किया है.
RRORETATE
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