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-मूलाराधना १५२०
अपने अंगको तेल लगाकर बैठे हुए मनुष्य के सर्वांगपर वायुसे आये हुए धूलि रेणु चिपक जाते हैं वैसे राग, द्वेष और मोहसे लिप्त हुए जीवके संपूर्ण प्रदेशों में कर्मका आगमन होता है. जिनेश्वरके उपदेशका स्वरूप जानकर कुगतिके दुःखोंसे भययुक्त हुआ भव्य पुरुष रागद्वेष ही सर्व दुःखोंके मूल कारण हैं ऐसा मनमें निश्चयकर रागद्वेषोंमें परिणत नहीं होता है. ऐसे पुरुषको 'जित रागद्वेष' कहते हैं. इन रागद्वेषोंको जीतने का उपाय जितेन्द्रियता है.
रूपरस वगैरह विषयोंके तरफ आत्माका उपयोग लगना यह इंद्रिय शब्दका अर्थ यहां समझना चाहिए अर्थात मतिज्ञानके उपयोग का नाम इंद्रिय है. यह मतिज्ञान उपयोग कैसा जीता जासकता है. इस प्रश्नका उत्तर- श्रुतज्ञानके उपयोग में आत्मा की प्रवृत्ति होने से मतिज्ञानोपयोग जीता जासकता है. एक समय में आत्मामें दोन उपयोगोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि इन प्रवृत्तिअमिं विरोध पाया जाता है. बाह्य का आश्रय जिनका है ऐसे उपयोगों के बिना रागद्वेपकी उत्पत्ति नहीं होती हैं- रामदेव संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं. इसलिए मतिज्ञानका उपयोग श्रुतज्ञानोपयोग आत्माको प्रवृत्त करनेसे जीता जाता है जिससे रागद्वेष का भी पराजय होता है.
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जिदकसायः क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोषरूप परिणामोंसे क्रोधादिक चारों कपाय भी जीते हैं अति और रति कर्मका उपय होनेसे रति और अरति परिणाम उत्पन्न होते हैं. मोह और मिथ्याज्ञानका सम्पज्ञानकी भागनासे नाश होता है. जब आत्मा जितद्रिय होता है तब क्रोधादिक कषाय, रति, अरति मोह और मिथ्याज्ञान इनका नाश होता है और आत्मा में सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति होती है. उपर्युक्त सब परिणाम ध्यानके राष्ट हैं उनका नाश करनेपर आत्मा ध्यान नामक परिणामका आश्रय करता है. जब आत्मा रागादि कयोंसे व्याकुल होता है. तब उसका ज्ञान पदार्थोंका यथार्थ ग्रहण नहीं करता है और निश्वलभी नहीं रहता है. जब ज्ञान निश्चल होकर वस्तु स्थिर होता है तब उसकोही ध्यान कहते हैं.
धम्मं चदुप्पयारं सुकं च चदुविधं किलेसहरं ॥ संसारदुक्खभीरो दुणि विज्झाणाणि सो ज्झादि ॥ १६९९ ॥
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