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लारावना
आबासः
भोगिनश्चाक्रणो रामा पासुदेषाः पुरंदराः॥
नाहरिस्तृप्तिमायातास्तृप्यंत्यत्र परे कथम् ।। १७२० ।। विजयोदया-देविंदचकबट्टी य देवेचा लाभास्तरायक्षयोपशमप्रकर्षात् भात्मीयतनुतेजोनिमित्तेन आहारण, चकवर्तिनोऽपि षष्ट्यधिकत्रिशतसूएकार्यषमात्रेणेकदिनाहारेण संस्करणोद्यतैः ढोकितेन तथा चावर्तिनोऽपि । भोगभूमिजा भोजनांगकरपतरूप्रभवेन न हमाः कथमन्यो जनस्सृष्यति ॥
मूलारा-देविदेत्यादि मुरेद्रा लाभान्तरायभयोपशमप्रकर्षादात्मीयतनुतेजोनिमित्तेनाहारेण न नृपाः । नाप्युभयंऽपि चक्रिणः पाट्यधिकत्रिशतमूपकारैः वर्षमात्रेणैकदिनमाहारसंस्करणोदाने हाकितेन, नापि भोगभूमिजातभोजनांग. कल्पतरूप्रभवन ॥
अर्थ-देवेंद्रों को लाभांतरय कर्मका तीन क्षयोपशम रहता है इस लिये उन शरीरमें कोनि स्थिर करने वाला जो आहार उसकी प्राप्ति होती है उससे वे तृप्त नहीं होते हैं. मफल चक्रवर्ती और त्रिखंड चक्रवर्तीक घरमें तीनसो साट रसोइया ये सब मिदनार दररोजजा दिनका र न्यार करते हैं उसका भोग लेकर चक्रवर्तीऑकी भी तृप्ति नहीं होती है. भोगभूमि जीव भी भोजनांग नामक कल्पवृक्षसे दिव्य आहार की प्राप्ति करके संतुष्ट नहीं होते हैं. उपर्युक्त देवेंद्र, चक्रवर्ति और भोगभूमिज जीव लाभान्तराय कर्मके श्योपशमसे युक्त होते हूँ इनको स्वेच्छित आहारके पदार्थ मिलते हैं तो भी वे तृप्त नहीं होते हैं तो अन्य तुझसरीखे.जन कैसे तृप्त होते हैं?
उध्दुदमणस्स ण रदी विणा रदीए कुदो हवदि पीदी ॥ पीदीए विणा ण सुहं उदुदचित्तस्स घण्णस्त ॥ १६५६ ॥ रत्याकलितचित्तस्य प्रीतिनास्ति रतिं विना॥
पीति विना कुता सौख्यं सर्वेवा गृद्धचेतसः ॥ १५२१ ॥ विजयोन्या-उछुदमणस्स तो मद्रमतो भद्रमस्मानेवमिति परिष्लबमानेचतसो न रतिः, कच तया धिमा प्रीतिः। प्रीत्या च पिना सुखचलचित्तस्य तसबाहारलपटस्य ।।
मुलारा-उद्दुदुमणस्त इदमितो भद्रमस्माच्चेदमिति परिप्लवमानचेतसः । चण्णम्म तत्तदाहारलंपटम्य ।। अर्थ-यह आहार स्वादु है यह आहार मीठा है इससे मैं सुखी होता हूं ऐसे विचारसे मनुष्यका मन