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मूलाराधना
आश्वासः
अमिलापाम आहार ग्रहण करनेम सुखकी अपेक्षास दुःखही जादा है. अथवा आहारकी प्रानि करने के लिये अधिक कष्ट करने पड़ते हैं अतएव आहारमें सुम्ब कम हैं और दुव अधिक है. सुखस्याहप्तायाः कारणमाच
जिब्भामूलं बोलेइ वेगदो बरहओव्व आहारो ।। तत्थेव रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो ॥ १६६१ ॥ अतिक्रामति वाजीव जिहामूलं स वेगतः ॥
तत्रैव बुध्यते स्वाद भुजानो न पुनः परे ॥ १७२७ ।। विजयोश्या-सिखाया मूल धेगेनातिकामत्याद्वारः जात्यय इव । जिल्लामात्र पर रस सि जीयो न आला. रानुपरितः, न पुरसोऽप्रतः । जापान जिहा।
कुतो भोक्राहारामुखमल्पमित्यवाह---.
मुलारा-चोलेदि वेगेन जिल्ला पयित्वा यातीत्यर्थः । तत्थेव जिह्वामान एव । अल्पैथ जिला 1 रस स्वाद । जाणदि पेत्ति । भोक्ता । पुरदो जिवायाः पूर्वस्मिन मुखदेश । से जिह्वायाः। परदो परस्मिन्भागे गलदेशातौ ॥ अक्तं च
जात्या इव वाहारो जिलामे त्यानिवेगतः ॥
तत्रैव तद्रस वेत्ति नैवापिरतोऽपि वा ॥ अर्थ--जैसे उत्तम घोडा बडे वेगसे दौडता है वैसेही यह आहार भी जिल्लाके अग्र भागका उल्लंघन करके शीघ्र पेटमें प्रवेश करता है. जिड़ाके अग्रभागमेंही आहारका रस जाननेका सामर्थ्य है अर्थात् संपूर्ण जिल्ला आहार का रस जानने में असमर्थ है ऐसा समझना चाहिय. आहार थालीम परोसा है एसी अवस्थामें अथवा वह पेटमें लेजानके अनंतर जीव उसका रसस्वाद लेने में असमर्थ है. और जिल्हा अल्प भी है इस लिये आहार का सुखानुभव अत्यल्प है.
अच्छिणिमिसेणमेत्तो आहारसुहस्स सो हवइ कालो ॥ गिद्दीए गिलइ वेगं गिडीए विणा ण होइ सुखं ॥ १६६२ ॥
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