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पठाराधना
आमासः
निमेषमात्रके सौख्यमाहारग्रहणे परं ॥
गृद्धितो गिलति क्षिप्रं तया न हि विना सुखम् ॥ १७२८॥ विजयोदया-अच्छिणिमेसणमित्तो अक्षिनिमेपणमात्रः कालः । याहाररससवाजनितसुखस्य गुजया बेगेन गिरति । यस्तो गृथा च विना नास्तीद्रियसुखं ॥
मूलारा-आहार सुहस्स आहाररसजनितसुखस्य । वेगं शीघ्रम् ॥
अर्थ-आहारके रसानुमबसे जो सुख मिलता है उसका काल आंख मूंदकर फिर उघदन में जितना काल लग सकता है उतना है. यह जीव अमिलाशसे आहारको शीघ्र निगल जाता है. और अभिलायाके बिना इंद्रिय सुखकी प्राप्ति होती नहीं.
दुक्ख गिद्धीपत्थस्साहÉतरस होइ बहगं च ॥ चिरमाहट्टियदुग्गयचेडस व अण्णगिट्टीए ॥ १६६१ ॥
अशन कांक्षतो नित्यं व्याकुलीभूतचेतसः ।।
दरिद्रचेटकस्येव गृद्धस्यास्ति कुतः सुखं ।। १७२९ ।। विजयोदया-दुक्म्यं गिदीवायरस दुरव महअधति लंपटनया प्रस्तस्याभिलपतः । निरमाइटिपदुग्गदचे उस्स व अण्णागिद्धीप धनगृया चिरं व्याकुलस्य दरिद्रसंबंधिनो दासेरस्येष।
मूलारा-गिद्धीपत्थर लंपटताअम्तम्य । आहटुंतरस आहारमभिलपनः । आहदि व्याकुलस्यानगृद्धया । दुग्ग. दचहान दरिद्रदासेरस्य ।
अर्थ-आहारमें लंपट होकर जो उसकी अभिलाषा करता है उसको बडे बडे दुःख भोगने पड़ते हैं. जो चिरकालसे अन्नकी अभिलापासे पीडित हुआ है ऐसा दरिद्री पुरुष जैसे दुःख पाता है वैसा दुःखानुभव आहार लंपटीकी भी होता है.
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को णाम अप्पसुक्खस्स कारणं बहुसुखस्स चुक्केज्ज ॥ चुका हु संकिलिसेण मुणी सग्गापवग्गाणं ॥ १६६४ ॥